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जम्मू-कश्मीर में तीन दिनों में 50 नौजवान पैलेट के छर्रे से हुए अंधे

जम्मू-कश्मीर में तीन दिनों में 50 नौजवान पैलेट के छर्रे से हुए अंधेश्रीनगर :जम्मू-कश्मीर पुलिस के हाथ लगे एक वीडियो से ये खुलासा हुआ है कि, किराए के पत्थरबाजों से घाटी में आतंकवादी हिंसा फैला रहे हैं । साथ ही पाकिस्तान के उस षडयंत्र का भी पता चला है जिसके तहत प्रत्येक वर्ष करोडो रुपए का फंड आतंकियों को वो भेजता है । पत्थर फेंकने वाले आरोपी का कहना है कि, अलगावादी नेता गिलानी के लोग पत्थर फेंकने के लिए हर दिन के हिसाब से ५०० रुपए देते हैं ।
कश्मीर के अलगाववादी नेता कुछ रुपए देकर अपने ही युवकों को बरगला रहे हैं, उन्हें हिंसा की आग में झोंक रहे हैं । किराए के युवकों से घाटी में पत्थरबाजी कराने वाले अलगाववादियों के चेहरे बेनकाब हो रहे हैं तो सीमा के उस पार बैठे इनके पाकिस्तानी आकाओं के षडयंत्र का भी खुलासा हो रहा है । ‘आज तक’ को मिली जानकारी के अनुसार, कश्मीर में ताजा पत्थरबाजी के पीछे पाकिस्तान का हाथ है और अलगाववादी जो रुपए बांट रहे हैं वो सीधे पाकिस्तान से भेजे गए है ।

घाटी में अशांति के लिए सीमा पार से अनुदान

सूत्रों के अनुसार, हवाला के माध्यम से पाकिस्तान से ६० करोड रुपए कश्मीर भेजे गए हैं । आईएसआई इस रुपयों का उपयोग कश्मीर के वातावरण में जहर घोलने के लिए कर रही है । पैसा भेजने के लिए जमात-उद-दावा चीफ हाफिज सईद और हिजबुल के आका सलाहुद्दीन के नेटवर्क का उपयोग किया गया । लश्कर-ए-तौएबा और हिजबुल के स्थानीय संपर्कों के सहारे ६० करोड की रकम आतंकियों तक पहुंची ।

पाकिस्तान की दोहरी विदेश नीति का खुलासा

जांच एजेंसियों ने आतंकियों और पाकिस्तानी हैंडलर्स के बीच बातचीत इंटरसेप्ट की है । एक आेर पाकिस्तान कश्मीर में आग लगा रहा है तो दूसरी आेर वो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने भारत को नीचा दिखाने के प्रयासो में भी जुटा है । संयुक्त राष्ट्र के मंच पर मानवाधिकार की बहस छिड़ी तो पाकिस्तान ने वहां भी अपनी ढपली बजानी शुरू कर दी । यूएन में पाकिस्तान की कमिश्नर मलीहा लोधी ने बुरहान को कश्मीर का नेता और उसकी मौत को एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग बताकर भारत के जख्म पर नमक रगड़ने की कोशिश की जिसका जवाब भारत के प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने दो टूक शब्दों में दी ।
stone_146850114886_650x425_071416063554आतंकी कमांडर बुरहान वानी की हत्या कश्मीर में बड़े पैमाने पर अशांति फूट पड़ा, मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रहा है और घायलों के सैकड़ों विभिन्न अस्पतालों में इलाज चल रहा है। घायल में से ज़्यादातर सरकारी फोर्स की तरफ से चलाये गोलियों और छर्रों से मारा गया है या जख्मी हुये हैं । 50 से ज्यादा गंभीर हालत में हॉस्पिटलों में हैं। डॉक्टरों के मुताबिक ये लोग पूरी तरह या आंशिक तौर से अपनी आँख खो सकते हैं। कश्मीर में होने वाले विरोध-प्रदर्शनों को काबू में रखने के लिए इस्तेमाल हो रही नकली गोलियां या पैलेट कश्मीरी नौजवानों की जिंदगी पर भारी पड़ रही हैं. अघातक हथियारों की श्रेणी में आने वाली इन पैलेट से 2010 से अब तक 500 के लगभग युवा अपनी आंखों की रोशनी खो चुके हैं, तो वहीं कुछ गंभीर रूप से घायल हुए हैं.
कश्मीर में विरोध-प्रदर्शनों को काबू में करने में पैलेट गन के अनियंत्रित प्रयोग को दर्शाता महज एक आंकड़ा भर हैं. ये बंदूकें दंगा नियंत्रण उपकरणों में से एक हैं, जिन्हें अघातक श्रेणी में रखा गया है. पर 2010 से (जब से इनका प्रयोग कश्मीर में शुरू हुआ) तमाम युवा अपनी दोनों या एक आंख की रोशनी खो चुके हैं. सैकड़ों ऐसे भी हैं जो जख्मी हुए तो कुछ की मौत हो गई. इन हथियारों को ‘अघातक’ की श्रेणी में रखना कहीं न कहीं अपने अर्थ के विपरीत ही साबित हो रहा है, जो घातक हथियारों के इस्तेमाल से ज्यादा खतरनाक है. एक तरफ जहां घातक हथियार जिंदगी छीन लेते हैं, ये हथियार जिंदगी तो बख्श देते हैं पर जीना ही मुश्किल कर देते हैं.
यहां के दो बड़े अस्पतालों, श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल और बेमीना स्थित शेर-ए-कश्मीर इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (स्किम्स) के पिछले सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो मामले की गंभीरता पता चलती है. अक्टूबर 2014 से नवंबर 2015 के बीच श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल के नेत्र चिकित्सा विभाग में 38 ऐसे रोगी आए जिन्हें पैलेट गन से चोट पहुंची थी. इनमें से 32 को आंख में गंभीर चोटें आई थीं, जिनकी बाद में सर्जरी की गई. चूंकि इनमें से कोई दोबारा इलाज या सलाह के लिए नहीं पहुंचा तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि कितनों की दृष्टि बची या नहीं. इसी तरह जनवरी 2015 से दिसंबर 2015 तक स्किम्स, बेमीना के नेत्र चिकित्सा विभाग में नौ ऐसे मरीज पहुंचे. इनमें से दो पूरी तरह से दृष्टिहीन हो गए, तीन की एक आंख की रोशनी गई और एक की दृष्टि आंशिक रूप से वापस लाई जा सकी.
श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2010 से अब तक पैलेट गन से चोटिल होने के तकरीबन 500 मामले अस्पताल में आ चुके हैं. गौरतलब है कि 2010 में पांच महीनों तक चले उपद्रव के बाद ही इस हथियार को पहली बार प्रयोग में लाया गया था. उस साल इस अस्पताल में करीब 45 युवाओं ने इन बंदूकों से लगी चोटों के चलते अपनी एक या दोनों आंखों की रोशनी गंवाई थी. अस्पताल के नेत्र विभाग के सदर मंज़ूर अहमद कांग बताते हैं, ‘हमने ये अध्ययन 2010 में उपद्रव के उन पांच महीनों में किया था. इन आंकड़ों में घाटी के दीगर अस्पतालों में भर्ती हुए घायलों की संख्या नहीं है.’ उस उपद्रव में घाटी के 120 नौजवानो की मौत हुई थी, जिनमें से कई की मौत की वजह सिर पर आंसू गैस के गोले का लगना था. आंसू गैस के गोले को भी अघातक श्रेणी में ही रखा जाता है.
चंडीगढ़ एक प्रमुख केंद्र है जहां पैलेट से घायल हुए युवाओं को इलाज के लिए ले जाया जाता है. वहां के डॉ. सोहन सिंह अस्पताल में कश्मीर में किसी उपद्रव या विरोध-प्रदर्शन के समय पैलेट से घायल औसतन 25 मरीज हर महीने अपनी आंखों के इलाज के लिए आते हैं.
डॉ. विपिन कुमार विज इस अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर हैं. वे बताते हैं कि 2015 में उन्होंने पैलेट से घायल 25 लोगों की सर्जरी की हैं. उनके अनुसार, ‘मेरे अनुमान से यहां पिछले पांच सालों में इस अस्पताल में कश्मीर से इलाज के लिए आए लगभग 50 लड़कों ने अपनी आँख खोई है. ये आंकड़ा ज्यादा भी हो सकता है क्योंकि लोग यहां के अलावा कई दूसरे अस्पतालों में भी जाते हैं, जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. हालत बहुत ज्यादा गंभीर है. मेरी इन लड़कों और कश्मीर के लोगों से पूरी सहानुभूति है. कई लड़कों की आंखों में काफी गंभीर चोटें आई थीं. उन बच्चों की दोनों आंखों की रोशनी चली गई. हम कुछ नहीं कर पाए. मैं ये कभी नहीं भूल सकता. ये बहुत दुखद है.’
डॉ. विज बताते हैं, ‘अगर आंख में एक बार पैलेट का टुकड़ा लगा तो आंख फिर कभी पहले जैसे सामान्य काम नहीं कर सकती. ये सामने से किए गए हमले जैसा होता है. पैलेट से आंख में कुछ गिरने या सामान्यतः लगी किसी चोट से कहीं ज्यादा नुकसान होता है.’ इसका कारण इनका बंदूक से बहुत ही तेज रफ्तार से निकलना है. ये काफी तेजी से निकलकर टुकड़ों में बंटती हैं और बिखर जाती हैं, जिससे इनसे घायल या चोटिल होने वालों की तादाद बढ़ जाती है. जब ये आंख में लगती हैं तब न केवल ये आंख को छेदती हैं बल्कि तेज रफ्तार में होने की वजह से घूम भी रही होती हैं, जिससे बीच में आने वाले तंतु भी खराब हो जाते हैं. डॉ. विज बताते हैं, ‘ये पैलेट आंख को भेदती हुई तंतुओं के बीच में जाकर फंस जाती है. ये तंतु किसी नस के भी हो सकते हैं या आंख के मुख्य भाग जिसे मैक्युला कहते हैं, उसमें लग सकते हैं. बहुत-से युवा ऐसे रहे जिन्हें इलाज के बाद ठीक होने में कठिनाई हुई.’ श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर के अनुसार, आंख के साथ ऐसा होना बिल्कुल वैसा है जैसे पानी से भरे गुब्बारे का कुछ चुभते ही फूट जाना. वे बताते हैं, ‘बंदूक से निकलने के बाद पैलेट कई बार टुकड़ों में बंट जाती है. ये टुकड़े जमीन और दीवार पर लगते हैं और फिर लौटकर मौजूद लोगों के शरीर पर लगते हैं. कई बार सीधे सिर, आंख या किसी और अंग पर भी लगते हैं.’
ऐसा ही कुछ हाल चंडीगढ़ के डॉ. ओम प्रकाश आई इंस्टिट्यूट का है. वहां भी हर महीने कश्मीर से पैलेट द्वारा लगी चोट का एक मामला आता ही है. पैलेट से आने वाली गंभीर चोटों से जुड़े इस मुद्दे पर सार्वजनिक और राजनीतिक रूप से हो-हल्ला शुरू हुआ पर इसके बावजूद इसका इस्तेमाल बदस्तूर जारी है. अक्टूबर 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, जो तब ओपोजीशन में थीं, ने इस हथियार के इस्तेमाल पर विरोध जताते हुए सदन से वॉकआउट किया था. पर हुकूमत में आने के बाद उन्होंने पुलिस को सिर्फ संयम बरतने को कहा है.
घाटी में इन अघातक हथियारों का प्रयोग 2010 में तब शुरू हुआ जब उपद्रवों के समय की जा रही फायरिंग में करीब 50 युवाओं की मौत हो गई. तब तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने केंद्र से पुलिस को ऐसे हथियार सप्लाई करने के लिए लिखा था. उस समय की एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, ‘उमर के इस निवेदन के बाद जबलपुर की आयुध फैक्टरी ने इस पर संज्ञान लेते हुए राज्य की पुलिस को ऐसी राइफलें बनाकर दीं जिनसे भीड़ पर नियंत्रण किया जा सके.
14 अगस्त, 2010 को सोपोर के सीलो इलाके में करीब 3000 लोगों की भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए पहली बार पंप एक्शन राइफल का प्रयोग किया गया. उस वक्त भी इससे कुछ लोग घायल हुए थे. पर जल्द ही एक ओर घातक हथियारों के इस्तेमाल से मौतों की संख्या बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर अघातक हथियारों ने बहुत-से लोगों को अंधा बनाया. अगले तीन महीनों में घातक हथियारों से 70 लोगों की मौत हुई.
पैलेट से घायल हुए युवाओं की बढ़ती संख्या ने घाटी में इन अघातक हथियारों के इस्तेमाल पर बहस शुरू की है. दुनिया के कई हिस्सों में ऐसी बहसें चल रही हैं. ऐसा माना जा रहा है कि ‘अघातक’ शब्द जान-बूझकर इन हथियारों के जानलेवा रूप को छिपाने के लिए प्रयोग किया गया है. 2013 में राज्य के मानवाधिकार आयोग ने इंटरनेशनल फोरम फॉर जस्टिस नाम के एक एनजीओ द्वारा दायर की गई एक याचिका के जवाब में पैलेट गनों के प्रयोग को मानवाधिकारों का हनन कहा था. एनजीओ की इस याचिका में ऐसी घटनाओं का विस्तृत ब्योरा था जिनमें दस लोगों ने पैलेट लगने से आंखों की रोशनी गंवाई थी. पिछले साल मई में पैलेट लगने से हामिद नज़ीर भट के दृष्टिहीन होने के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी राज्य सरकार से पैलेट गनों के उपयोग को बंद करने की अपील की थी. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की ओर से जारी बयान में कहा गया, ‘जम्मू कश्मीर प्रशासन को प्रदर्शनों में भीड़ को नियंत्रित करते समय पुलिस द्वारा पैलेट गनों के प्रयोग को निषिद्ध करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना स्वाभाविक रूप से गलत और विवेकहीन है.’
वहीं दूसरी ओर, जम्मू कश्मीर पुलिस के पास इन हथियारों का कोई विकल्प नहीं है. कश्मीर के आईजी जावेद मुज्तबा गिलानी कहते हैं, ‘जान-माल के ज्यादा नुकसान से बचने के लिए इन हथियारों का इस्तेमाल जरूरी है. हमारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है.’ गौरतलब है कि नवंबर 2014 में जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने पैलेट गन पर बैन लगाने के लिए दायर की गई कुछ याचिकाओं को खारिज करते हुए पुलिस द्वारा बचाव के इस तरीके को मंजूरी दी थी. कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘याचिकाकर्ताओं ने इन जनहित याचिकाओं को किसी आनुभविक रिसर्च के बिना ऐसे ही लापरवाह तरीके से दायर किया था. ये याचिकाएं जनहित याचिकाओं के मानक पर सही नहीं थीं न ही विधिसम्मत थीं.’
इस तरह इन अघातक हथियारों के उपयोग को कानूनी मंजूरी भी मिली हुई है. लेकिन ऐसा कहा जाता था कि इससे महबूबा मुफ्ती के इन हथियारों के विरोध पर फर्क नहीं पड़ता. उन्होंने वादा किया था कि जब वे सत्ता में होंगी तो इन पर रोक लगेगी. लेकिन अब जब पीडीपी-भाजपा गठबंधन सत्ता में है, इन हथियारों पर पूर्णतः रोक तो दूर इनके प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए भी कम ही प्रयास हुए हैं. बावजूद इस तथ्य के कि अक्टूबर 2014 से दिसंबर 2015 तक 64 युवा पैलेट से गंभीर रूप से घायल हुए हैं, जिनमें से ज्यादातर की आंख में चोट आई है.

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