मंदिर की घंटी, पायल की खनक और देवता की हुंकार: ऋषभ शेट्टी की ‘कांतारा’ ने बदल दिया फिल्मों का ‘786’ वाला अवतार, ये मनोरंजन से बढ़कर सांस्कृतिक अनुष्ठान है
ऋषभ शेट्टी भारतीय सिनेमा की वह नायाब खोज हैं, जो केवल अभिनेता या निर्देशक भर नहीं, बल्कि एक संपूर्ण कथाशिल्पी हैं। उनके भीतर वह ग्राम्य लय है, जिसकी अनुगूँज किसी देवस्थान की ध्वनि की भाँति दूर तक फैली रहती है। यदि कांतारा मैं बनाता, तो सम्भवतः उन्हें परदे से एक पल भी ओझल न होने देता। किन्तु यह उनके कौशल का वैभव है कि वे ख़ुद को भी कहानी के भीतर एक पात्र की तरह भंग कर देते हैं, और परदे पर देवत्व, लोक और आस्था को केंद्र में स्थापित कर देते हैं। जहाँ मुख्यधारा का भारतीय सिनेमा नायक को कभी किसी ‘बिल्ला नंबर 786’ के भरोसे बचाता है, जबकि मंदिर में न जाने की सौगंध जब उसने ली तो उसे ‘एंग्री यंग मैन’ का नाम दे दिया गया; मानो समाज से आक्रोशित युवा का यही चेहरा हो सकता है। या हमारा जो सिनेमा नायिका के आँसूओं से नायक के लिए मोक्ष लिख देता है, उस दौर में ऋषभ शेट्टी हमें ऐसे सिनेमा का अनुभव कराते हैं, जहाँ मंदिर की घंटी, पायल की खनक, और देवता की हुँकार ही कथा की रीढ़ है। कांतारा ने हमें याद दिलाया कि असली सुरक्षा तो लोक-देवता की हुंकार और प्रकृति की आभा में निहित है। गुलिगा और पंजुरली की गूँज जब सिन...