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जम्मू कश्मीर में घुसना बैन करवाया था नेहरू ने - श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान से आज नहीं लगता वीज़ा

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आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय राजनीति के अब तक के 70 वर्षीय इतिहास में केवल भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जो पहले दिन से ही धारा 370 का खुलकर विरोध करती रही है। उस समय भाजपा का नाम जनसंघ और चुनाव चिन्ह दीपक हुआ करता था। इसके ठीक विपरीत हर पार्टी इस धारा 370 का खुलकर समर्थन और इसको हटाए जाने का प्रचण्ड विरोध करती है।
लाल किले के प्राचीर से अपने सम्बोधन में कश्मीर पर बोलते हुए, प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय जनसंघ वर्तमान भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का एक बार भी नाम नहीं लिया। जिनके बलिदान से परमिट प्रथा समाप्त होने के ही कारण आज वहां भाजपा सरकार बनाने का प्रयत्न कर रही है।
आज भी हमसे आपसे हर भारतीय से माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए, बर्फानी बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए, कश्मीर में पर्यटन के लिए कश्मीर सरकार का परमिट मांगा जाता। हमको आपको उसी तरह उस परमिट का इंतजार करना पड़ता जिस प्रकार कैलाश मानसरोवर के लिए आज चीन के परमिट का इंतिज़ार करना पड़ता है कि आखिर मेरा नंबर कब आयेगा… कब आयेगा मेरा नंबर...
यह कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं है। 1947 में देश को मिली आज़ादी के 6 साल बाद भी,1953 तक जम्मू-कश्मीर में प्रवेश के लिए हमको परमिट लेना पड़ता था। यह व्यवस्था ब्रिटिश शासकों ने नहीं बनाई थी। उनके शासनकाल में तो कोई भी व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में उसी तरह बेधड़क आ जा सकता था जिस तरह देश के अन्य भागों में। आज़ादी मिलने के बाद जम्मू कश्मीर में किसी भारतीय के प्रवेश पर परमिट प्रतिबन्ध की व्यवस्था जवाहर लाल नेहरू ने लागू की थी।
इस सन्दर्भ में अवलोकन करें:--
http://nigamrajendra28.blogspot.in/2017/07/blog-post_30.html



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भूली बिसरी यादें : इतिहास के धूमिल पृष्ठों से भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी...
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जब कश्मीर का भारत में विलय हुआ था तब सरदार पटेल के विरोध के बाद भी धारा 370 को संविधान में जोड़ा गया। कश्मीर में आज भी ब...

यह तुगलकी व्यवस्था 1953 में तब खत्म हुई जब जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इसके खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और बिना परमिट के जम्मू कश्मीर में प्रवेश किया। परिणामस्वरूप जम्मू कश्मीर की शेख अब्दुल्ला सरकार ने पहले उनको गिरफ्तार किया फिर जेल में उनका कत्ल कर दिया था। शेख अब्दुल्ला सरकार द्वारा किये गए उस कत्ल में नेहरू सरकार की मिलीभगत के आरोपों की आग से देश उस समय सुलग उठा था। अतः डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी के उसी बलिदान से थर्रायी घबरायी तत्कालीन नेहरू सरकार को परमिट व्यवस्था को तत्काल खत्म करना पड़ा था। यह परमिट व्यवस्था उसी धारा 370 का सबसे घातक प्रावधान था जिसके खिलाफ जंग आज भी जारी है।
यहां एक उल्लेख जरूरी है कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कत्ल के आरोप को नकार कर जवाहरलाल नेहरू ने उनकी मौत को बीमारी के कारण हुई मौत कह कर कश्मीर की तत्कालीन शेख अब्दुल्ला सरकार और अपनी केन्द्र सरकार को क्लीन चिट दे दी थी।
संयोग से उस समय डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माताश्री जीवित थीं। नेहरू द्वारा दी गयी उस क्लीनचिट के जवाब में उन्होंने कहा था कि...
"नेहरू, सरकार भी तुम्हारी है, जांच एजेंसी और अदालत भी तुम्हारी है। लेकिन याद रखना कि एक अदालत ऊपर भी है। मेरा, मेरे बेटे का और तुम्हारा फैसला अब उसी अदालत में होगा।"
अब बात फिर वही कि 370 के खिलाफ लड़ाई में पार्टी के संस्थापक शीर्षस्थ नेता ने अपने प्राण तक बलिदान कर दिए। परमिट व्यवस्था खत्म कराई। उसके बावजूद यूपी या केन्द्र में जनसंघ पार्टी कभी बहुमत के आसपस तो छोड़िए, 100 सीटों की संख्या तक को पार नहीं कर सकी थी। भाजपा और RSS भी भलीभांति यह समझ चुके हैं कि धारा 370 के लिए सब कुछ दांव पर नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए अचूक अवसर पर उसकी गिद्ध दृष्टि गड़ी हुई है। यकीन रखिये कि वह अवसर अभी आया नहीं है और जिस दिन आएगा उस दिन भाजपा से कोई चूक नहीं होगी।
अख़लाक़, जुनैद, वेमुला की मौत तथा चंद गुम्मे फेंक कर तोड़े गए चर्चों की खिड़कियों के शीशों पर हफ़्तों तक ठप्प रखी गयी राज्यसभा और कांग्रेस कम्युनिस्ट के नेतृत्व में राज्यसभा में होते रहा नंगा नांच सबूत है कि अवसर अभी आया नहीं है।
लेकिन वह अवसर बहुत निकट अवश्य आ गया है। भाजपा पर पूरा भरोसा बनाए रखिए और अगर भरोसा नहीं है तो उस पार्टी का नाम बताइये जो धारा 370 हटा सकती है।

Related imageकश्मीर में शेख अब्दुल्ला की पैरवी करने पहुंच गए थे नेहरू

आज भारत की सबसे बड़ी समस्या है कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। इस समस्या के मूल में जाने पर कई ऐसे कारण सामने आते हैं जो यह बताते हैं कि यदि आजादी के समय जब रियासतों का विलय हो रहा था, तब यदि भारतीय नेतृत्व स्पष्ट नजरिया रखता और ढुलमुल बातें छोड़कर साफ-साफ निर्णय लेता, तो यह समस्या पैदा ही नहीं होती।
जब भारत का बंटवारा हुआ तब कश्मीर में महाराजा हरिसिंह का शासन था। लेकिन आजादी मिलने के पहले से एक मुस्लिम नेतृत्वकर्ता शेख अब्दुल्ला भी लोगों में लोकप्रिय हो रहे थे। अब्दुल्ला लोगों का समर्थन हासिल कर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे कि 'डोगरा राजवंश" कश्मीर छोड़कर चला जाए। महाराजा हरिसिंह भी इसी डोगरा राजवंश के थे। साफ था कि अब्दुल्ला जनता का सहयोग लेकर या यूं कहें जनता को भड़काते हुए कश्मीर की सत्ता पर काबिज होना चाहते थे। अब्दुल्ला ने अपनी मांग तेज की तो घाटी में उपद्रव शुरू हो गए। इससे नाराज महाराजा हरिसिंह ने सन् 1946 में अब्दुल्ला को तीन साल के लिए जेल में डालते हुए राज्य में मार्शल लॉ लागू कर दिया। इस बीच अचानक जवाहरलाल नेहरू जेल में बंद शेख अब्दुल्ला की पैरवी करने कश्मीर पहुंच गए। महाराजा के लोगों ने नेहरू को कश्मीर में घुसने से रोक दिया और लौटा दिया। यह समय ऐसा था जब हरिसिंह नहीं चाहते थे कि नेहरू या महात्मा गांधी भी कश्मीर में प्रवेश करें। महाराजा का मानना था कि इनके आने से डोगरा राजवंश पर दबाव बढ़ेगा कि वे भारत में शामिल हों, जबकि महाराजा अपने लिए स्वतंत्र रियासत चाहते थे।
अंतत: स्थितियां विकट होती गईं। इस घटना के बाद नेहरू और महाराजा में दूरी और बढ़ गई जबकि पहले से मित्र शेख अब्दुल्ला व नेहरू की मित्रता और गहरी हो गई। इस बीच बंटवारे का दिन आ गया और पाकिस्तान अलग हो गया। अलग होते ही पाक ने अपने कबीलाई हमलावरों के जरिये कश्मीर पर छद्म हमला करवाया ताकि वह कश्मीर को पाकिस्तान में मिला सके। तब भारत ने अपनी सेनाएं श्रीनगर भेजीं और हमलावरों और पाक सैनिकों को खदेड़ा। फिर भी बड़ा हिस्सा (पाक अधिकृत कश्मीर) तो पाक ने कब्जा ही लिया।

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