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पाठ्यपुस्तकों में भ्रान्तियाँ : कब जागेंगे हम ?

No automatic alt text available.Image may contain: indoorकोई भी राष्ट्र अपनी मूल राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय गौरव और सांस्कृतिक मूल्यों को अपने ही हाथों नष्ट करके, कभी भी विश्व में सम्मान अर्जित नहीं कर सकता। दुर्भाग्यवश विगत आधी शताब्दी में भारत के कतिपय लेखकों, #इतिहासकारों#पुरातत्त्वविदों ने अपने लिखे ग्रंथों में भारतीय इतिहास को तोड़-मरोड़ और विकृत करके भारतीय गौरव को धूलि-धूसरित करने का प्रयास किया है।
No automatic alt text available.Image may contain: 3 people, textयह एक निर्विवाद तथ्य है कि विगत दो शताब्दियों में #भारतीय_इतिहास पर लिखे गए अनेक ग्रंथों में अनेक ग़लत, भ्रामक तथा अनैतिहासिक तथ्यों की भरमार है। अंग्रेज़ी-शासनकाल के दौरान अंग्रेज़-शासकों ने यूरोपीय इतिहासकारों को भारतीय इतिहासलेखन का कार्य सौंपा। लगभग दो सौ #यूरोपीय_इतिहासकारों तथा #प्राच्यविदों (इण्डोलॉजिस्ट्स) ने भारतीय इतिहास लेखन के लिए मूल भारतीय ग्रंथों को आधार न बनाकर यूरोपीय इतिहास-ग्रंथों को आधार बना, अपनी मनमर्जी, भारतीय इतिहास के तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा तथा गौरवशाली भारत को दीन-हीन के रूप में प्रस्तुत किया।
No automatic alt text available.उस कालखण्ड में अनेक #भारतीय_इतिहासकारों ने यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा लिखे ग्रंथों की कटु आलोचना की थी और वैकल्पिक इतिहास प्रस्तुत किया था। उन इतिहासकारों में डॉ. #वासुदेवशरण_अग्रवाल (1904-1966), सर #यदुनाथ_सरकार (1870-1958), #राजबली_पाण्डेय (1907-1971), #सत्यकेतु_विद्यालंकार (1903-1964), #आचार्य_रामदेव (1881-1939), पं. #कोटावेंकटचलम् (1885-1959), #विश्वनाथ_काशीनाथ_रजवाड़े (1863-1926), #काशी_प्रसाद_जायवसाल (1881-1937), #पं_सूर्यनारायण_व्यास (1902-1976), आदि प्रमुख हैं।
देश के स्वाधीन होने के बाद पं. #नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शिक्षा मंत्रालय #मौलाना_अबुल_कलाम_आज़ाद (1888-1958) को दे दिया। सर्वप्रथम 1952 में भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का इतिहास लिखने की जि़म्मेदारी भारत सरकार ने प्रख्यात राष्ट्रवादी इतिहासकार डॉ. #रमेश_चन्द्र_मजूमदार (1888-1980) को सौंपी थी, किन्तु सरकार ने उनके द्वारा लिखे इतिहास के प्रथम भाग को स्वीकार नहीं किया और सेकुलर इतिहासकार डॉ. #ताराचन्द (1888-1973) को इतिहास लिखने की जिम्मेदारी सौंपी।
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No automatic alt text available.बाद के कालखण्ड में प्रधानमंत्री #इन्दिरा_गांधी ने सन 1971 में काँग्रेस के विभाजन के पश्चात् कम्युनिस्टों से समझौता किया और कट्टर वामपंथी विचारधारावाले #सैयद_नुरूल_हसन (1921-1993) को केन्द्रीय #शिक्षा_मंत्री का पद सौंपा। अपने पाँच वर्ष के कार्यकाल (1972-1977) में डॉ. हसन ने कांग्रेस सरकार को ढाल बनाकर प्राचीन हिंदू इतिहास तथा पाठ्य पुस्तकों के #विकृतिकरण का बीड़ा उठा लिया। लगभग एक दर्जन वामपंथी इतिहासकारों (#रामशरण_शर्मा#अर्जुन_देव, इन्दिरा अर्जुन देव, #इरफान_हबीब#रोमिला_थापर#बिपन_चन्द्र#के_एन_पणिक्कर, #सतीश_चन्द्र, #हरबंस_मुखिया, #सुमित_सरकार, #द्विजेन्द्र_नारायण #झा, #कृष्णमोहन_श्रीमाली, आदि) को एकत्रित कर नुरूल हसन इस कार्य में जुट गये। ये सभी नकली इतिहासकार दिल्ली और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की उपज थे तथा घोर हिंदू-विरोधी थे। तमाम शिक्षण अकादमियों में कम्युनिस्ट भर दिये गये। इसका परिणाम यह हुआ कि इन सभी ने भारत का पूरा इतिहास ही कम्युनिस्ट-शैली में लिख डालने की साजि़श रची गयी।
No automatic alt text available.No automatic alt text available.सन् 1972 में इन कम्युनिस्टों ने #भारतीय_इतिहास_अनुसंधान_परिषद् का गठन कर इतिहास-पुनर्लेखन की घोषणा की। सुविख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार, रमेश चंद्र मजूमदार तथा #जी_एस_सरदेसाई-जैसे सुप्रतिष्ठित इतिहासकारों के लिखे ग्रंथों को नकारकर नये सिरे से इतिहासलेखन का कार्य शुरू कराया गया। इन इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत के स्वर्णिम इतिहास को #विकृत करना शुरू कर दिया।
No automatic alt text available.इन इतिहासकारों ने भारत की प्राचीनता, उपलब्धियों और गौरव का नाश करते हुए न केवल #आर्य_आक्रमण_सिद्धान्त का पोषण किया, बल्कि हिंदुओं को बर्बर, #गोमांस-भक्षक बताया, बल्कि रामायण और महाभारत को काल्पनिक सिद्ध करने का प्रयास किया; इन लोगों ने मुस्लिम आक्रमणों और उनके नृशंस अत्याचारों पर पर्दा डालते हुए मुग़ल-काल को स्वर्ण-युग की संज्ञा दी, इनकी दृष्टि में अकबर ‘महान्’ व ‘सहिष्णु’ तथा औरंगज़ेब ‘जि़न्दा पीर’ था; इन इतिहासकारों की समझ यहीं तक थी कि जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य भगोड़े, 22 तीर्थंकर काल्पनिक, सिख-गुरु और जाट चोर और लुटेरे, शिवाजी लूटमार करनेवाले थे।
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इनकी दृष्टि में मुग़ल-बादशाह अकबर ‘महान्’ और नायक था तथा देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले महाराणा प्रताप और हेमचन्द्र विक्रमादित्य खलनायक थे। इन इतिहासकारों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को ‘ग़दर’ (सैनिकों की बग़ावत) सिद्ध करने का प्रयास किया। केवल काँग्रेस पार्टी का महिमामण्डन चाहनेवाले इन इतिहासकारों ने स्वाधीनता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान करनेवाले हज़ारों राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों की न केवल घोर उपेक्षा की, अपितु उन्हें ‘आतंकवादी’ सिद्ध करने का भी प्रयास किया।
No automatic alt text available.No automatic alt text available.#राष्ट्रीय_शैक्षिक_अनुसन्धान_एवं_प्रशिक्षण_परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) नामक संस्था देश के सभी भागों के लिए प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्चतर-माध्यमिक स्तर पर पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन करती है। प्रधानमंत्री #अटल_विहारी_वाजपेयी के कार्यकाल में डॉ. #मुरली_मनोहर_जोशी केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री बनाए गए, जिन्होंने #सरकारी_पाठ्यपुस्तकों में संशोधन करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किये। किन्तु अल्पकाल में ही भाजपा-सरकार गिर गयी और नयी सरकार ने भाजपा पर #शिक्षा_का_भगवाकरण का आरोप लगाते हुए सभी पुस्तकें वापस ले लीं और पुरानी पुस्तकों को पुनः बहाल कर दिया। फलस्वरूप जो पुस्तकें भाजपा-शासनकाल में प्रकाशित की गईं, उनपर अखिल भारतीय स्तर पर कोई चर्चा न हो सकी। कुछेक राष्ट्रवादी इतिहासकारों, पत्रकारों एवं विद्वानों ने उन पुरानी पुस्तकों पर आपत्ति अवश्य दर्ज़ की, किन्तु उनकी अवाज़ नक्कारखाने में तूती सिद्ध हुई।
Image may contain: 3 people, textNo automatic alt text available.विगत दो दशक तक यूपीए-शासनकाल के दौरान एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा छठी से बारहवीं कक्षा तक के लिए इतिहास की जो पुस्तकें हिंदी एवं अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई हैं, उनमें इतिहास को काफ़ी तोड़ा-मरोड़ा गया है। 1980 के दशक से लेकर वर्तमान में पढ़ाई जा रही इतिहास की सभी पाठ्य पुस्तकों की भी पैनी समालोचना किए जाने की आवश्यकता है। ऐसी पुस्तकें अपने देश के नौनिहालों मे छद्म सेक्युलरिज्म के नाम पर हीन भावना का प्रसार करती हैं तथा उन्हें राष्ट्रीय गौरवगाथाओं से वंचित करती हैं। ऐसा कुकृत्य किसी राष्ट्रीय अपराध से कम नहीं है।
यह देश का दुर्भाग्य है कि पूर्ण बहुमतवाली भाजपा-सरकार के शासनकाल में भी #एनसीईआरटी द्वारा ऐसी घटिया पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है, जिसका एक-एक पृष्ठ कड़ी समालोचना की मांग करता है। स्वाधीनता के 70 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद और केंद्र में राष्ट्रीय सरकार होने के बाद भी ऐसी स्थिति यह सोचने पर विवश करती है कि हम कभी जागेंगे भी या नहीं...
आज के समय के हिसाब से चन्द्रगुप्त मौर्य और महाभारत युग आदि का इतिहास लिखना मूर्खता नहीं होगी ? दूसरी बात कि 'पुरातत्त्व' नाम का जो कीड़ा हमारे इतिहासकारों की काट रहा है, उससे भी मुक्ति पाने की आवश्यकता है. पुरातत्त्व का उपयोग इतिहास के 'एक स्रोत' के रूप में उतना ही हो, जितना प्राचीन ग्रंथों को स्रोत के लायक माना जाता है. केवल ठीकरों से निष्कर्ष निकालने से हम भारतीय इतिहास के साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकते.(साभार गुंजन अग्रवाल की वॉल से)

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To write on general topics and specially on films;THE BLOGS ARE DEDICATED TO MY PARENTS:SHRI M.B.L.NIGAM(January 7,1917-March 17,2005) and SMT.SHANNO DEVI NIGAM(November 23,1922-January24,1983)

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