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नेहरू ने नहीं होने दिया कश्मीर का समाधान

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नेहरू के केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र देकर बिना परमिट के
 जम्मू-कश्मीर कूच करते डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सम्पर्क प्रमुख तथा पूर्व में जम्मू-कश्मीर के प्रांत प्रचारक रहे अरुण कुमार ने एक वार्ता में कहा कि जम्मू-कश्मीर में सूचनाओं, जानकारियों का विकृतिकरण हुआ है और देश मे जम्मू-कश्मीर के बारे में जानकारियों का अभाव है। इसलिये जटिल समस्याओं में से एक कश्मीर की समस्याओं का निदान नही हो पाया। इसलिये जम्मू-कश्मीर को लेकर कुछ ठीक करना है तो सबसे पहले जम्मू-कश्मीर को लेकर एकेडमिक काम करने की आवश्यकता है जिस पर कार्य करना चाहिये। वह दीन दयाल शोध संस्थान में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बहुआयामी व्यक्तित्व व कृतत्व पर आधारित पुस्तक “डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कश्मीर समस्या” के लोकार्पण के अवसर पर अपने विचार व्यंक्त कर रहे थे। इस दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के महाराजा अग्रसेन महाविद्यालय के इतिहास विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ऋतु कोहली द्वारा लिखित इस पुस्तक को प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया।
ब्रिटेन व अमेरिका चाहते थे कश्मीर का पाक में विलय
पुस्तक के बारे में बताते हुए अरुण कुमार ने बताया कि जैसा ऐकेडमिक काम हम खोजते थे वह इस पुस्तक में है। उन्होंने बताया कि समय के साथ घटी घटनाओं से निर्मित धारणाओं से  हटकर देश के  इतिहास को दोबारा से निर्मित किया गया है। 1947 में देश की आजादी के समय, द्वितीय विश्वयुद्ध और स्वतन्त्रता के बाद के परिदृष्य में ब्रिटिश हित को कैसे बचाना है, और बाद में उसके साथ अमेरिकन हित भी जुड़ गये, यह ध्यान में रखकर लिखा इतिहास नई पीढी को पढाया गया. ब्रिटेन और अमेरिका के हित इसी में थे कि कश्मीर किसी तरह पाकिस्तान में मिल जाए। जिसके लिये जम्मू-कश्मीर को लेकर इसके लिए तथ्यहीन इतिहास निर्मित किया गया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि महाराजा हरी सिंह ने कभी भी नेहरू जी को गिरफ्तार नहीं किया था। वास्तव में महाराजा एक दिन भी कश्मीर को स्वतंत्र देश के रूप में नहीं रखना चाहते थे। महाराजा के मन में कोई भी अनिर्णय नहीं था। विलय के लिए वो देश की आजादी से कई महीने पहले से तैयार थे। मेहरचंद महाजन को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अप्रैल में उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को चार्ज दे दिया था। विलय का प्रस्ताव नेहरू जी ने स्वयं स्वीकार किया था।
आजाद कश्मीर को लेकर भी हुई चर्चा
इस पुस्तक में स्पष्ट किया गया है कि भारत को आजादी से पहले ही जम्मू-कश्मीर विलय का प्रस्ताव मिला था। उन्होंने बताया कि धारा  370 को लेकर बहुत बड़ी बहस देश में चलती है। धारा  370 का उद्देश्य  जम्मू-कश्मीर को कोई विशेष दर्जा देना नहीं था। वास्तव में 1951 में जो ब्रिटिश अमेरिकन षड्यंत्र चले, और जब उनके षड्यंत्र विफल हो गए और जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान में नहीं जा सका तो, क्या स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर हो सकता है इस नीति पर यह देश चले। उस समय शेख अब्दुल्ला उनका मोहरा बना, शेख को लेकर कुछ खेल खेलने की कोशिश की और अनुच्छेद 370 का संविधानिक दुरुपयोग करके जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग-थलग करने का प्रयास प्रारम्भ हुआ।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया था विरोध
उस समय केन्द्रीय उद्योग मंत्री डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका कडा विरोध किया। जम्मू-कश्मीर को लेकर डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी बहुत स्पष्ट थे। डॉ. मुखर्जी ने बताया था कि यूएन में जाकर हमको स्पष्ट समझ में आ गया कि दुनिया की शक्तियां हमको कुछ देने वाली नहीं हैं, दुनिया से हमको कोई न्याय मिलने वाला नहीं है। हमको इस चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है। हमेशा के लिए यूएन के प्रश्नों को खत्म कर दीजिए। दूसरी बात वो कहा करते थे कि आप अगर कुछ विशेष अधिकार देने की चाहते हैं तो संविधान संशोधन करिए। आप दो लोग बैठकर दिल्ली एकॉर्ड करके, समझौता करके लागू करना चाहते हैं, यह मत करिए। संसद में आइए,डिबेट रखिए, आप चर्चा कीजिए। देश के बाकी लोग कश्मीर में जाकर बस नहीं सकते हमारा संविधान क्या इसकी आज्ञा देता है। लेकिन वास्तव में नेहरू जी वो डिबेट नहीं करना चाहते थे।
डॉ मुख़र्जी जम्मू-कश्मीर में लागू केवल धारा 370 के ही विरोध में नहीं थे बल्कि वहां लागू परमिट सिस्टम ,देश में दो प्रधानमंत्री, दो झंडे आदि के भी विरुद्ध थे। यदि शेष भारत से यदि कोई व्यक्ति जम्मू-कश्मीर जाना चाहे तो बिना परमिट के नहीं जा सकता था। जब संसद में नेहरू से प्रश्न किया तो नेहरू ने कहा कि वहां ऐसे ही रहेगा। परिणाम स्वरुप, डॉ मुख़र्जी ने मंत्रिमंडल और कांग्रेस से त्यागपत्र देकर नेहरू और शेख़ को ललकारते हुए कहा था कि मुख़र्जी इन प्रथाओं का विरोध करता है और बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर जाकर समस्त देशवासियों को इस प्रथा से मुक्त करवाऊंगा।
शेख अब्दुल्ला की कैद में मुखर्जी का बलिदान
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डॉ मुख़र्जी के बलिदान ने समाप्त की जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए परमिट लेने का नियम, देश में
दो प्रधानमन्त्री प्रथा।  उस समय शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर का और नेहरू शेष भारत के प्रधानमन्त्री थे।
उन दिनों बिना परमिट जम्मू-कश्मीर में कदम रखने पर कानूनी कार्यवाही करने का प्रावधान था। जैसे बिना
वीसा के किसी विदेश में जाने पर होती है।  
अरुण जी ने बताया कि डॉ. मुखर्जी कश्मीर विषय पर कभी सीधे समाज में नहीं गए, तुरंत आंदोलन नहीं किया,उन्होंने एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाते हुए पत्र व्यवहार, बातचीत की, बार-बार बातचीत का प्रयास किया। आल पार्टी मीटिंग, शेख अब्दुल्ला को बुलाने, प्रजा परिषद् के लोगों को बुलाने के आठ महीने तक उनके प्रयास चलते गए। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला तो आखिर में डॉ. मुखर्जी को आंदोलन के मार्ग पर जाना पड़ा। इस आन्दोलन में बाद में शेख अब्दुल्ला की कैद में उनका बलिदान हुआ। । डॉ मुखर्जी का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि अगर कश्मीर को कुछ देना चाहते हैं तो जम्मू और लद्दाख के साथ अन्याय क्यों करना चाहते हैं। कश्मीर की जनता की भावना की बात करते हैं तो जम्मू-लद्दाख की क्यों नहीं करते। जम्मू लद्दाख के लोग भारत के पूर्ण संविधान के अंतर्गत रहना चाहते हैं। देश को ठीक दिशा में चलना है तो डॉ. मुखर्जी की बताई बातों को याद रखना होगा. हम पाकिस्तान, बांग्लादेश को दुनिया के बाकी देशों की तरह नहीं देख सकते वो हमारे लिए विदेश नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के प्रश्न की भारत उपेक्षा नहीं कर सकता। यह उनका आंतरिक मामला नहीं हो सकता। वह कहते थे भारत की जिस संस्कृति की हम बात करते हैं, उस पांच हजार साल की संस्कृति में सिंध और बांग्लादेश के लोगों का भी उतना ही योगदान है जो आज के भारत का है।
अस्वीकार था जनसंख्या का बंटवारा
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महात्मा गाँधी के साथ विचार-विमर्श करते
केन्द्रीय उद्योग मन्त्री डॉ मुख़र्जी(बीच में बैठे) 
उन्होंने बताया कि हमने 1947 में देश की आजादी स्वीकार की थी, ट्रांसफर ऑफ पापुलेशन स्वीकार नहीं किया था। हमने दो देश बनाए थे। जनसँख्या का बंटवारा नहीं स्वीकार किया था। नेहरू जी ने 1947 में देश की आजादी के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए आश्वासन दिया था कि वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं के हितों की हम चिंता करेंगे। हमें अपनी इस जिम्मेदारी से बचना नहीं चाहिये, जिस आजादी की लड़ाई हम लड़ रहे थे, उसमें उनका योगदान हमसे कम नहीं है। अगर हम उन हिन्दुओं की ओर से आंख मूंद लेंगे कृतंघ्ता  होगी । वास्तव में डॉ. मुखर्जी की बहुत स्पष्ट नीतियां थीं, अगर इन नीतियां के अनुसार देश चला होता तो पाकिस्तान, बांग्लादेश के अंदर अल्पसंख्यकों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता था। उन्होंने ध्यान दिलाया कि जम्मू-कश्मीर का प्रश्न केवल पाक अधिकृति कश्मीर का प्रश्न है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान न हुआ होता तो 1954 के आर्डर के खिलाफ भी देश के अंदर एक प्रबल आंदोलन हुआ होता। उनके बाद विपक्ष में उस तरह का नेतृत्व नहीं रहा। इसलिए 54 के आर्डर जैसी धोखाधड़ी हो गई। 370 के नाम पर आज जो सारी व्यवस्थाएं हमको दिखाई देती हैं यह वास्तव में अनुच्छेद 370 का संविधानिक दुरुपयोग है जो 14 मई 1954 के आर्डर से हुआ।
क्या कहते है ओम प्रकाश कोहली
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Sardar Baldev Singh greets C. Rajagopalachari at the
Palam aerodromein Delhi as Nehru introduces the
 members of the Cabinet to the Governor General designate.
 Also seen are(from right) Shyama Prasad Mookerjee,
 K.C. Neogi and Rajkumari Amrit Kaur.
डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी से प्रत्यक्ष मिले गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली ने अपने संबोधन में बताया कि कई बार व्यक्तियों के आग्रह और दुराग्रहों के कई दूरगामी परिणाम होते हैं। यह जवाहर लाल नेहरू का आग्रह और दुराग्रह था जो इतिहास के जम्मू-कश्मीर वाले प्रकरण को उलझा रहा है। उनका दुराग्रह तो था महाराजा हरिसिंह के साथ और आग्रह था शेख अब्दुल्ला के साथ। शेख के साथ उनका अति आग्रह और महाराजा के साथ उनकी दुराग्रह की गांठ ने जम्मू-कश्मीर के प्रकरण को उलझाने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। कोहली ने कहा कि डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की चर्चा ज्यादातर कश्मीर के संदर्भ में करते हैं, लेकिन कश्मीर के संदर्भ से हटाकर भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
बंगाल की राजनीति पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक शूरवीर की तरह उन्होंने लड़ाई लड़ी, साम्प्रदायिक राजनीति के विरोध में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व जेल में चला गया था, उस समय कमजोर पड़ चुके इस आंदोलन को फिर से खड़ा करने में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जो कार्यकलाप हैं वो अपने आप में एक स्वतन्त्र अध्ययन का विषय है। आजादी के आंदोलन के दिनों में तीन राजनीतिक पार्टियां थीं जिनकी प्रासंगिकता थी। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा। बाद में हिन्दू महासभा अप्रासंगिक हो गई और कांग्रेस और मुस्लिम लीग ही रह गईं। इसी कारण भारत बंट गया।
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राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमण्डल के साथ 
कांग्रेस की जो नीति देश की आजादी से पहले चली आ रही थी उसी नीति को देश की आजादी के बाद भी जारी रखा। यह तुष्टिकरण की नीति थी, यह मुसलमानों को राजी करने की नीति थी, यह पाकिस्तान के प्रति नरमी की नीति थी। इस नीति का अगर मुकाबला करना है तो कांग्रेस का कोई राष्ट्रीय विकल्प खड़ा होना चाहिए। यह समय की मांग थी। परिणामतः उन्होंने भारतीय जनसंघ के रूप में कांग्रेस का एक राष्ट्रीय विकल्प खड़ा किया। उन्होंने बताया कि धारा 370 का खतरा अभी क्या है, किस रूप में है, उसमें विभाजन की क्षमता मौजूद है, जम्मू-कश्मीर के अलगाववाद और पृथकतावाद की क्षमता मौजूद है या अब वो बूढ़ा हो गया है इस पहलू का भी नये संदर्भ में विचार, अध्ययन की जरूरत है।
उपमुख्यमंत्री डॉ. निर्मल सिंह के जम्मू कश्मीर पर विचार
जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री डॉ. निर्मल सिंह ने अपने उद्बोधन में बताया कि इतिहास लगातार निर्मित होने वाली प्रक्रिया है, तथा अपना रास्ता स्वयं लेता है। लेकिन जिस प्रकार से भारत का इतिहास लिखा गया उसमें भी विशेषकर जम्मू-कश्मीर का जो इतिहास लिखा गया वह एक राजनीतिक सोच, जिस सोच ने भारत का विभाजन किया और उस सोच को आगे कैसे अपने तरीके से ढाला जाए, कुछ शक्तियों का इसके लिए पूरा प्रयास रहा। एक खास तरह की सोच लोगों में परिपक्व करने की कोशिश की गई कि जम्मू-कश्मीर पूर्णतः भारत नहीं है। यह अलग है, यह विशेष है, इस प्रकार की सोच को आजकल और पुष्ट करने की कोशिशें होती हैं।
उन्होंने बताया कि 1940 में जब पाकिस्तान का रेजोल्यूशन आया, और 1953 में जब शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को अरेस्ट किया गया, इस कालखण्ड के ऊपर और अधिक अध्ययन करने की आवश्यकता है। उस समय तीन महत्वपूर्ण लोग थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, महाराजा हरिसिंह और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला। नेहरू जी की भूमिका पर काफी कुछ कहा गया है, इनमें कछ बातों पर और अधिक फोकस करने की आवश्यकता है। पाकिस्तान और अलगाववादियों द्वारा समय-समय पर बार बार यह भ्राति पैदा की गई कि महाराजा हरिसिंह आजाद रहना चाहते थे। इस भ्रांति को दूर करना बहुत ही आवश्यक है। इसी तरह शेख अब्दुल्ला क्या चाहते थे, तथाकथित जो सेकुलर इतिहासकार हैं वो बार-बार प्रतिस्थापित करना चाहते है कि शेख अब्दुल्ला बिलकुल राष्ट्रीय थे, भारतीय थे। लेकिन वास्तव में 1931 में जब यह आंदोलन चला उस समय से 1933 तक शेख अब्दुल्ला का झुकाव जो था वह अंग्रेजों की ओर था, अंग्रेज शेख को  महाराजा हरिसिंह के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे। अंग्रेजों की रूचि  गिलगित में थी , गिलगित 1933 के बाद सात साल के लिए उन्हें लीज पर मिल गया। उसके बाद अंग्रेज शेख अब्दुल्ला की तरफ से पीछे हट गए।
उसके बाद ही शेख अब्दुल्ला का झुकाव कांग्रेस की तरफ होता है और नेहरू जी के साथ उनकी दोस्ती होती है। शेख अब्दुल्ला के मन में अपनी सल्तनत कश्मीर में बनाने की बात शुरू से थी। उन्होंने अपने इस उद्देश्य के लिए सभी तरह के प्रयास किए और एक रणनीति  के तौर पर कांग्रेस को इस्तेमाल किया। इसलिए जम्मू-कश्मीर में ऐतिहासिक व्यक्तियों का गहराई से अध्ययन होना चाहिए।
गंवाए गए दो अवसर, छ: विनाशकारी नतीजे
शहीद उसे कहा जाता है जो शत्रु देश के विरूद्ध लड़ते हुए युध्द क्षेत्र में अपने जीवन का बलिदान देता है। डॉ. मुकर्जी अपने स्वयं के देश में एक सरकार के विरूध्द लड़ते हुए शहीद हुए। उनकी लड़ाई जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भारतीय संघ में पूर्ण विलय के लिये थी। वह एक ऐसे दूरद्रष्टा थे, जिन्होंने जम्मू कश्मीर, जोकि सामरिक महत्व का राज्य है, को शेष भारत के साथ एक पृथक और कमजोर संवैधानिक सम्बन्धों से जोड़ने के परिणामों को पहले से भांप लिया था।
दु:ख की बात है कि न तो नई दिल्ली में पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने और न ही श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला की सरकार ने सोचा कि जम्मू और कश्मीर को भारतीय संघ में पूरी तरह से मिलाया जाना जरूरी है। जहां तक शेख अब्दुल्ला की वास्तविक समस्या उनकी महत्वाकांक्षा थी कि वे स्वतंत्र कश्मीर के निर्विवाद नेता बनना चाहते थे। जहां तक नेहरूजी का सम्बन्ध है, यह मामला साहस, दृढ़ता और दूरदर्शिता की कमी का मामला था। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370, जिसे पंडित नेहरू ने स्वयं एक अस्थायी उपबंध बताया था, अभी तक समाप्त नहीं किया गया है। इसके परिणामस्वरूप, कश्मीर में अलगाववादी ताकतें, जिन्हें पाकिस्तान में भारत विरोधी व्यवस्था द्वारा सहायता प्रदान की जाती है और भड़काया जाता है, अपने इस जहरीले प्रचार को फैलाने में उत्साहित महसूस कर रही है कि जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं था और विशेष रूप से कश्मीर भारत का भाग नहीं है।
हमारे देश ने विभाजन के समय नेहरूजी द्वारा कश्मीर मुद्दे का हमेशा के लिए भारत के पक्ष में समाधान करने में उनकी असफलता के लिये भारी कीमत चुकाई है। नेहरूजी द्वारा की गई भारी भूल से पूर्णतया बचा जा सकता था। आखिरकार गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल अन्य सभी रियासतों का-कुल 561 रियासतें-भारतीय संघ में विलय करने में सफल रहे। जब उनमें से कुछ ने हिचकिचाहट दिखाई या पाकिस्तान में शामिल होने की अपनी मंशा जताने का साहस किया तो पटेल ने नये-नये स्वतंत्र हुए भारत राष्ट्र की ताकत का उपयोग करके उनको उनका स्थान दिखाया। उदाहरण के तौर पर, हैदराबाद के नबाव के सशस्त्र प्रतिरोध को कड़ाई से दबा दिया गया। जूनागढ़ का शासक पाकिस्तान भाग गया।
जम्मू एवं कश्मीर एकमात्र ऐसा राज्य था जिसके विलय संबंधी मामला प्रधानमंत्री नेहरू सीधे तौर पर देख रहे थे। वास्तव में, ताकत और छलकपट के माध्यम से कश्मीर पर कब्जा करने के लिये 1947 में भारत के विरूध्द पाकिस्तान द्वारा छेड़े गये पहले युध्द से नेहरू सरकार को एक ऐसा शानदार अवसर मिला था जिससे न केवल आक्रमणकारियों को पूरी तरह से बाहर निकाला जाता अपितु पाकिस्तान के साथ कश्मीर मुद्दे का हमेशा के लिये समाधान भी हो जाता। भारत ने एक बार फिर 1971 के भारत-पाक युध्द में कश्मीर मुद्दे का हमेशा के लिऐ समाधान करने का अवसर खो दिया जब पाकिस्तान न केवल बुरी तरह हारा था अपितु भारत के पास 90,000 पाकिस्तानी युध्द कैदी थे।
अत: हमारे देशवासी यह जानते हैं कि कश्मीर समस्या नेहरू परिवार की ओर से राष्ट्र के लिये विशेष ‘उपहार‘ है। इस ‘उपहार‘ के नतीजे इस रूप में सामने आए हैं :-
  • पाकिस्तान ने पहले कश्मीर में और बाद में भारत के अन्य भागों में सीमापार से आतंकवाद फैलाया।
  • पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में धार्मिक उग्रवाद फैलाना, जो बाद में भारत के अन्य भागों में फैल गया।
  • हमारे हजारों सुरक्षा जवानों और नागरिकों का मारा जाना।
  • सेना और अर्ध्द सैन्य बलों पर करोड़ों-करोड़ रुपयों का खर्च।
  • भारत-पाकिस्तान के बीच कटु सम्बन्ध होने से विदेशी ताकतों को लाभ उठाने का अवसर मिलना।
  • लगभग सारे कश्मीरी पंडितों का अपने गृह राज्य से बाहर निकाला जाना और अपनी मातृभूमि में शरणार्थी अथवा ‘आन्तरिक रूप से विस्थापित‘ लोग बनना।
डा0 मुकर्जी ने पहले से भांप लिया था कि जम्मू कश्मीर को एक पृथक और गलत संवैधानिक दर्जा देने के भयावह परिणाम होंगे। परन्तु उन्होंने न केवल जम्मू एवं कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण विलय की बात सोची थी, अपितु एक बहादुर और शेरदिल वाला राष्ट्रभक्त होने के नाते उन्होंने इस विज़न को अपने निजी मिशन का रूप दिया था। उन्होंने अपने मिशन को तीन क्षेत्रों-राजनीतिक, संसदीय और कश्मीर की धरती पर लागू करने का निश्चय किया।
पहला, अक्तूबर, 1951 में उन्होंने कांग्रेस के सच्चे राष्ट्रवादी विकल्प के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिये अपने संघर्ष के अलावा, जनसंघ का एजेंडा नये-नये हुए स्वतंत्र भारत के ऐसे ढंग से पुनर्निर्माण तक विस्तारित हुआ जिससे धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के इसके सभी नागरिकों के लिये समृध्दि, न्याय, सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित हो।
दूसरा, वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनावों में जनसंघ द्वारा पहली बार भाग लेने के बाद डा0 मुकर्जी लोकसभा में वस्तुत: विपक्ष के नेता के रूप में उभरे। यहां पर उन्होंने कांग्रेस सरकार की जम्मू एवं कश्मीर के प्रति नीति का जोरदार विरोध किया, जिसका अन्य बातों के साथ-साथ यह अर्थ निकला कि भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कोई भी व्यक्ति कश्मीर के ‘प्रधानमंत्री‘ की अनुमति के बिना कश्मीर में दाखिल नहीं हो सकता था। कश्मीर का स्वयं का संविधान होगा, स्वयं का प्रधानमंत्री होगा और इसका अपना ध्वज होगा। इसके विरोध में डा0 मुकर्जी ने मेघनाद किया : “एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे।”
तीसरे, डा0 मुकर्जी ने 1953 में यह घोषणा की कि वह बिना परमिट के कश्मीर जायेंगे। 11 मई को कश्मीर में सीमापार करते समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और श्रीनगर के निकट एक जीर्णशीर्ण घर में नज़रबन्दी के रूप में रखा गया। जब उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया तो उन्हें उचित चिकित्सा सहायता प्रदान नहीं की गई और 23 जून को वह रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत पाए गए।
डा. मुकर्जी के बलिदान के तत्काल परिणाम हुए। इस घटना के बाद से परमिट प्रणाली को रद्द कर दिया गया और राष्ट्रीय तिरंगा राज्य में फहराया जाने लगा। जून, 1953 में डा0 मुकर्जी के बलिदान के बाद ही राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग और सी.ए.जी. का प्राधिकार जम्मू एवं काश्मीर राज्य पर विस्तारित किया गया। यह बड़े शर्म की बात है कि भारत की एकता और अखंडता के लिये डा0 मुकर्जी के बलिदान का इतिहास स्कूल और कालेजों में हमारे छात्रों को पढ़ाया नहीं जाता।
हमारी शिक्षा प्रणाली और सरकार-नियंत्रित मास-मीडिया नेहरू परिवार के योगदान की महिमा तो गाता है, परन्तु अन्य राष्ट्रभक्तों, जैसेकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, गोपीनाथ बारदोलाई, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, हिरेन मुखर्जी, ए. के. गोपालन और निश्चय ही डा0 मुकर्जी द्वारा किये गये संघर्षों और बलिदानों को या तो जानबूझकर कम आंकती है या अनदेखा करती है।
एक समय था जब कांग्रेस एक ऐसा विशाल प्लेटफार्म था जहां पर सभी प्रकार के राष्ट्रभक्तों का सम्मान किया जाता था। वास्तव में महात्मा गांधी के कहने पर ही डा0 मुकर्जी, जो उस समय हिन्दू महासभा से संबंध रखते थे, और डा0 बी. आर. अम्बेडकर, जो कांग्रेस के कट्टर आलोचक थे, इन दोनों को स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था।
अगर समस्त स्थितियों का अवलोकन किया जाये तो इस मुद्दे पर तत्कालीन भारतीय जनसंघ(भाज ) वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) भी बराबर की अपराधी है। कांग्रेस  अगर वोट-बैंक नीति अपनाए हुए थी, तो भाजपा (भाज) भी पीछे नहीं रही।  क्या कभी किसी नेता ने डॉ मुखर्जी की मृत्यु का गंभीरता से जाँच करवाने की मांग उठाई। जबकि जनसंघ से लेकर  भाजपा तक को आज भी मुस्लिम समाज हीन भावना से देखता है। यदि तत्कालीन भाजपा नेताओं ने गंभीरता से डॉ मुखर्जी की जेल में मृत्यु एवं उनके अधूरे रहे स्वप्न जैसे :-अनुच्छेद 370  एवं सामान नागरिक अधिकार को आधार मान चुनाव लड़ते, इन मुद्दों से पदभ्रष्ट  नही हुए होते, इस पार्टी ने कांग्रेस को  न जाने कभी का बहुत पीछे छोड़ दिया होता। लेकिन मुस्लिम वोटों एवं  सत्ता के लालच में इन मुद्दों को त्यागती रही। यही कारण है कि जनता आसानी से भाजपा पर  विश्वास नही करती।  यह तो नरेंद्र मोदी का ही साहस था कि कांग्रेस को चारों खाने चित किया।

अनुच्छेद 35A : संविधान का अदृश्य हिस्सा जिसने कश्मीर को लाखों लोगों के लिए नर्क बना दिया है

अनुच्छेद 35A : संविधान का अदृश्य हिस्सा जिसने कश्मीर को लाखों लोगों के लिए नर्क बना दिया हैजून 1975 में लगे आपातकाल को भारतीय गणतंत्र का सबसे बुरा दौर माना जाता है. इस दौरान नागरिक अधिकारों को ही नहीं बल्कि भारतीय न्यायपालिका और संविधान तक को राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दिया गया था. ऐसे कई संशोधन इस दौर में किये गए जिन्हें आज तक संविधान के साथ हुए सबसे बड़े खिलवाड़ के रूप में देखा जाता है. लेकिन क्या इस आपातकाल से लगभग बीस साल पहले भी संविधान के साथ ऐसा ही एक खिलवाड़ हुआ था? 'जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र' की मानें तो 1954 में एक ऐसा 'संवैधानिक धोखा' किया गया था जिसकी कीमत आज तक लाखों लोगों को चुकानी पड़ रही है.
1947 में हुए बंटवारे के दौरान लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे. ये लोग देश के कई हिस्सों में बसे और आज उन्हीं का एक हिस्सा बन चुके हैं. दिल्ली, मुंबई, सूरत या जहां कहीं भी ये लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी कहलाने लगे हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी नहीं है. यहां आज भी कई दशक पहले बसे लोगों की चौथी-पांचवी पीढ़ी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है.
कई दशक पहले बसे इन लोगों की चौथी-पांचवी पीढ़ी आज भी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है
एक आंकड़े के अनुसार, 1947 में 5764 परिवार पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे. इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे. यशपाल भारती भी ऐसे ही एक परिवार से हैं. वे बताते हैं, 'हमारे दादा बंटवारे के दौरान यहां आए थे. आज हमारी चौथी पीढी यहां रह रही है. आज भी हमें न तो यहां होने वाले चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का.'

यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है. इनमें गोरखा समुदाय के वे लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह तो रहे हैं. इनसे भी बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां आकर बस गए थे. उस समय इस समुदाय के करीब 200 परिवारों को पंजाब से जम्मू कश्मीर बुलाया गया था. कैबिनेट के एक फैसले के अनुसार इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था. बीते 60 सालों से ये लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं. लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता.

ऐसे ही एक वाल्मीकि परिवार के सदस्य मंगत राम बताते हैं, 'हमारे बच्चों को सरकारी व्यावसायिक संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता. किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है.'
यशपाल भारती और मंगत राम जैसे जम्मू कश्मीर में रहने वाले लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता. इसलिए ये लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर में पंचायत से लेकर विधान सभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं. 'ये लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में ये कई सालों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते.' सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ बताते हैं, 'इनकी यह स्थिति एक संवैधानिक धोखे के कारण हुई है.'
ये लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर में पंचायत से लेकर विधान सभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं
जगदीप धनकड़ उसी 'संवैधानिक धोखे' की बात कर रहे हैं जिसका जिक्र इस लेख की शुरुआत में किया गया था. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष भटनागर बताते हैं, '14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा एक आदेश पारित किया गया था. इस आदेश के जरिये भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35A जोड़ दिया गया. यही आज लाखों लोगों के लिए अभिशाप बन चुका है.'

'अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को यह अधिकार देता है कि वह 'स्थायी नागरिक' की परिभाषा तय कर सके और उन्हें चिन्हित कर विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके.' आशुतोष भटनागर के मुताबिक 'यही अनुच्छेद परोक्ष रूप से जम्मू और कश्मीर की विधान सभा को, लाखों लोगों को शरणार्थी मानकर हाशिये पर धकेल देने का अधिकार भी दे देता है.'
आशुतोष भटनागर जिस अनुच्छेद 35A (कैपिटल ए) का जिक्र करते हैं, वह संविधान की किसी भी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35a (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं है. जगदीप धनकड़ बताते हैं, 'भारतीय संविधान में आज तक जितने भी संशोधन हुए हैं, सबका जिक्र संविधान की किताबों में होता है. लेकिन 35A कहीं भी नज़र नहीं आता. दरअसल इसे संविधान के मुख्य भाग में नहीं बल्कि परिशिष्ट (अपेंडिक्स) में शामिल किया गया है. यह चालाकी इसलिए की गई ताकि लोगों को इसकी कम से कम जानकारी हो.' वे आगे बताते हैं, 'मुझसे जब किसी ने पहली बार अनुच्छेद 35A के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि ऐसा कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान में मौजूद ही नहीं है. कई साल की वकालत के बावजूद भी मुझे इसकी जानकारी नहीं थी.'

भारतीय संविधान की बहुचर्चित धारा 370 जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार देती है. 1954 के जिस आदेश से अनुच्छेद 35A को संविधान में जोड़ा गया था, वह आदेश भी अनुच्छेद 370 की उपधारा (1) के अंतर्गत ही राष्ट्रपति द्वारा पारित किया गया था. लेकिन आशुतोष कहते हैं, 'भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान को संशोधित करना है. यह अधिकार सिर्फ भारतीय संसद को है. इसलिए 1954 का राष्ट्रपति का आदेश पूरी तरह से असंवैधानिक है.'
अनुच्छेद 35A (कैपिटल ए) संविधान की किसी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35a (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं
अनुच्छेद 35A की संवैधानिक स्थिति क्या है? यह अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं? क्या राष्ट्रपति के एक आदेश से इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ देना अनुच्छेद 370 का दुरूपयोग करना है? इन तमाम सवालों के जवाब तलाशने के लिए जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र जल्द ही अनुच्छेद 35A को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की बात कर रहा है.
वैसे अनुच्छेद 35A से जुड़े कुछ सवाल और भी हैं. यदि अनुच्छेद 35A असंवैधानिक है तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 के बाद से आज तक कभी भी इसे असंवैधानिक घोषित क्यों नहीं किया? यदि यह भी मान लिया जाए कि 1954 में नेहरु सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल किया था तो फिर किसी भी गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसे समाप्त क्यों नहीं किया? इसके जवाब में इस मामले को उठाने वाले लोग मानते हैं कि ज्यादातर सरकारों को इसके बारे में पता ही नहीं था शायद इसलिए ऐसा नहीं किया गया होगा.
अनुच्छेद 35A की सही-सही जानकारी आज कई दिग्गज अधिवक्ताओं को भी नहीं है. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र की याचिका के बाद इसकी स्थिति शायद कुछ ज्यादा साफ़ हो सके. लेकिन यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो आज भी सबके सामने है. पिछले कई सालों से इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. यशपाल कहते हैं, 'कश्मीर में अलगाववादियों को भी हमसे ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं, वहां फौज द्वारा आतंकवादियों को मारने पर भी मानवाधिकार हनन की बातें उठने लगती हैं. वहीं हम जैसे लाखों लोगों के मानवाधिकारों का हनन पिछले कई दशकों से हो रहा है. लेकिन देश को या तो इसकी जानकारी ही नहीं है या सबकुछ जानकर भी हमारे अधिकारों की बात कोई नहीं करता.'
आशुतोष भटनागर कहते हैं, 'अनुच्छेद 35A दरअसल अनुच्छेद 370 से ही जुड़ा है. और अनुच्छेद 370 एक ऐसा विषय है जिससे न्यायालय तक बचने की कोशिश करता है. यही कारण है कि इस पर आज तक स्थिति साफ़ नहीं हो सकी है.' अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर को कुछ विशेषाधिकार देता है. लेकिन कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने वाला यह अनुच्छेद क्या कुछ अन्य लोगों के मानवाधिकार तक छीन रहा है? यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो यही बताती है.

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