17 मार्च 2014 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ अन्ना की दिल्ली फ्लाॅप हुई थी। उस रैली में भीड़ नहीं थी। कुर्सियां खाली पड़ी थी। अन्ना को जब मालूम हुआ भीड़ नही जमा हुई, अन्ना रामलीला ग्राउंड ही नही पहुंचे। उस रैली के बाद अन्ना की इतनी वसीयत थी जिससे किसी आम आदमी का उपर उठना कठिन है। लेकिन अब कौन सी ऐसी हिम्मत आ गयी कि अन्ना जंतर-मतर पर यह सोचकर आश्वस्त होकर फिर चल दिए कि भीड़ तो आनी ही है, आंदोलन सफल होना ही है। अगर इस बूते अन्ना धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं तो जो रैली 5 अप्रैल 2011 को हुई थी, उसको सफल करने में कोन सी ताकत प्रयत्नशील थी? इसमे सच्चाई भी है, अतिशीघ्र इसके ऊपर से पर्दा हटेगा, यदि मीडिया निष्ठा एवं ईमानदारी से प्रयत्न करें। क्योंकि यूपीए के शासन काल के यादि वो शक्तियां खुलकर सामने आती तो न अन्ना आंदोलन का साहस रि पाते और न ही भीड़ आ पाती। यानि अन्ना के ड्रामे की पोल ही खुल जाती, अन्ना का आंदोलन फ्लाॅप हो जाता, उसके पीछे किस की थी? यह प्रश्न तब उठता है जब अन्ना द्वारा दुबारा आंदोलन की घोषणा की जाती है और कांग्रेस के महारथियों की चहल कदमी उसके पक्ष में देन हो जाती है। समस्त लाभबंधियों के साथ कांग्रेस जुगलबंदी भी सामने आ जाती है, एक नही अनेक पहलू है, जिनकी यदि जांच की जाए तो अन्ना और उनके सहयोगी कटघरे में दिखेंगे।
अन्ना यदि ईमानदार एवं निष्ठावान गांधीवादी है, तो राष्ट्र को बताएं कि जिस चार्टर्ड प्लान से अन्ना पुणे से दिल्ली आए, वह किस वह किस कम्पनी का था? किसने उनके आने का खर्चा किया? क्या यह सच नहीं कि उस चार्टर्ड प्लेन में अन्ना के साथ कौन बैठा था? वह व्यक्ति उन्हें क्या मंत्रणा पढ़ाथा? क्या यह सच नहीं कि अन्ना के पृदर्शन को सफल बनाने के लिए पलवल से भीड़ मंगवायी गयी? क्या यह सच नहीं कि इस आंदोलन को सफल बनाने मे कांग्रेसी उद्योगपति पानी की तरह पैसा नहीं बहा रहे? क्या यह सच नहीं के एकता परिषद परिषद के पी. वी. राजगोपाल अन्ना के किसान आंदोलन से अलग हो गए हैं? केरल से गांधीवादी कार्यकर्ता गांधी शांति प्रतिष्ठान के उपाध्यक्ष एवं एकता परिषद के प्रमुख राजगोपाल ने 2011 में ही कहा था कि अन्ना टीम के निर्णयों के उन्हें नहीं पूछा जाता।
एक और महत्वपूर्ण कड़ी! अपने विवाहित एवं बड़बोले बयानों से समाचारो में होने वाले दिग्विजय सिंह अपने बयानों पर कभी खेद नहीं जताते। लेकिन एक बार जब उन्होंने अन्ना के विपक्ष कुछ कहा कि आलाबयान की और से दिगगी की आलोचना हुई, मामला इतना गम्भीर हो गया कि अंत में दिग्गी को सार्वजनिक रूप में माफी मांगनी पड़ी विचार करने वाली बात यह है कि यह सब उस समय घटित हुआ, जब अन्ना कांग्रेस के के विरूद्ध आंदोलन कर रहे थे। ज्वलंत प्रश्न यह है कि अन्ना कांग्रेस का क्यों विरोध कर रहे थे? वास्तविकता यह है कि जून 2010 में बाबा रामदेव द्वारा वाले धन पर लिए आंदोलन से कांग्रेस से विमुख हो रही जनता का ध्यान विचलित करने के सोनियां गांधी सलाहकार टीम में संलग्न एम.जी.ओस की सहायता से अन्ना के उछाला गया। एक तरफ रामदेव को विवादों के फंसा कर 5 अप्रैल 2011 से अन्ना द्वारा योजनाबद्ध के भूख हड़ताल करवा दी।
अन्ना दश को बताएं कि 12 दिनों तक अन्ना के भूखे रहने के बावजूद, अनेकों आश्वासनों के बावजूद एक मजबूत लोकपाल क्यों नहीं आ पाया। हार कर अन्ना रालेगण विद्धि में जाकर बैढ गएं अन्ना की आवाज दुबारा उस समय निकली, जब रामदेव ने यूपीए सरकार की नीनियों के विरूद्ध बोलना शुद्ध किया। हांलाकि कांग्रेस सवयं अपने चक्रव्यूह में फंस बाहर नहीं निकल पायी, वही षड़यंत्र भूमि अधिगृहण बिल पर रच रहा है। अन्ना को न किसी लोकपाल से मतलब और न ही किसी भूमि अधिगृहण बिल से, क्योंकि अन्ना का रिमोट तो कंाग्रेस के हाथ है। किसी और के नहीं।
संसद सत्र के दौरान राहुल गांधी का अवकाश पर जाना भी इस षडयंत्र से पर्दा हटाने का प्रयास है कि जिस आआप को आसतीन के सांप की तरह पाला वही कांग्रेस को पाताल में पहुंचा रही है। सूत्रों के अनुसार राहुल नहीं चाहते कि कांग्रेस की इतनी दुर्दशा होने के बाद भी अन्ना के किसी आंदोलन एवं आआप को किसी भी तरह से समर्थन दिया जाए, क्योंकि इस गुप्त समर्थन से भाजपा को नहीं बल्कि कांगे्रस को बहुत अधिक क्षति पहंुच रही है जिसकी पूर्ति के लिए कांग्रेस को कही अधिक कठोर परिश्रम करना पडे़गा। वास्तव में अन्ना को एक आआप को समथर्न ही कांग्रेस का सर्वनास कर रहा है। किन्तु कांगेस में कोई राहुल की बात सुनने को तैयार नहीं, क्योंकि विनाश काले विपरीत बुद्धि! यानि भाजपा के विश्व षडयंत्र में कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार पार्टी सर्वनाश कर लिया।

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