इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि डेंगू का आयुर्वेद एवं होमिओ के सिवा किसी अन्य पद्दति में कोई दवा नहीं। आज देश में इतने एनजीओस हैं, क्या कोई एनजीओ किसी भी अस्पताल के आगे पपीते के पत्तों का रस निकाल कर नहीं दे सकता? इन विषम परिस्थितियों में बाबा रामदेव को आगे आना चाहिए।
दिल्ली में इलाज ना होने से एक और बच्चे ने दम तोड़ दिया। बच्चे का नाम अमन बताया जा रहा है। बच्चों के माँ बाप उसे दिल्ली के 7 अस्पतालों में लेकर गए लेकिन सभी ने उसका इलाज करने से मना कर दिया। बड़े निजी अस्पताल मूलचंद और मैक्स ने भी बिस्तर ना होने का बहाना बनाकर बच्चे का इलाज करने से इनकार कर दिया। सरकारी अस्पताल सफदरजंग और होली फैमिली ने भी बच्चे के स्वास्थय को हल्के में लिया और समय से इलाज नहीं किया। आज उस बच्चे की भी जान चली गयी।
प्राइवेट अस्पतालों की हकीकत
बीमारी बढ़ने और महामारी जैसे हालातों में प्राइवेट अस्पतालों की चांदी हो जाती है। ऐसे समय में प्राइवेट अस्पताल केवल मोटी पार्टी वाले मरीजों को ही भर्ती करते हैं और डरा डरा कर दो तीन हप्ते तक उनसे जमकर कमाई करते हैं। डेंगू के मरीजों से प्राइवेट अस्पताल जमकर कमाई करते हैं। ऐसे मरीजों को प्लेटलेट्स की कमी दिखाकर डराया जाता है और दो तीन हप्ते तक प्लेटलेट्स की संख्या घटा बढाकर दिखाया जाता है और इलाज के बाद लम्बा चौड़ा बिल बनाकर पैसे वाले मरीजों और इंश्योरेंस कंपनियों को लूट लिया जाता है।
मेडिक्लेम वालों को और लूटते हैं प्राइवेट अस्पताल
प्राइवेट अस्पताल डेंगू जैसे मरीजों को भर्ती करते समय उनकी जेब टटोल लेते हैं। अगर मरीज के पास किसी अच्छी कंपनी का मेडिक्लेम या हेल्थ इंश्योरेंस होता है तब तो अस्पतालों वालों की और चांदी हो जाती है। ऐसे मरीजों को प्राइवेट अस्पताल हाथों हाथ लेते हैं। अस्पतालों को भी पता होता है कि मरीज का मेडिक्लेम होने के कारण उससे 1-2 दो लाख आसानी से कमाए जा सकते हैं। भर्ती करने के बाद अस्पताल के डाक्टर मरीज के शरीर का सारा टेस्ट कर डालते हैं। जिन टेस्टों का मरीज की बीमारी से कोई लेना देना नहीं होता वे भी कर डालते हैं। कमाई के चक्कर में अगर मरीज के शरीर में प्लेटलेट्स की संख्या कम नहीं होती तो भी रिपोर्ट में कमी दिखाकर डाक्टर उन्हें डराते हैं और बाजार से मंहगे दामों में 8-10 पैकेट खरीदकर प्लेटलेट्स चढ़ा डालते हैं। डर की वजह से मरीज भी कुछ नहीं बोलते और अस्पताल के डाक्टरों की हरकत देखते हुए भी अपना मुंह बंद रखते हैं। अस्पतालों की कमाई के चक्कर में कभी कभी मरीज बीमार ना होकर भी बीमार हो जाते हैं और कुछ मरीजों की मौत भी हो जाती है। ऐसे मरीजों को अस्पताल क्रिटिकल बताकर छुटकारा पा लेते हैं।
दिल्ली साकेत के सिटी हॉस्पिटल का आँखों देखा हाल
मीडिया ने कुछ दिन पहले प्राइवेट अस्पतालों की हरकत को अपनी आँखों से देखा। दिल्ली के साकेत के सिटी हॉस्पिटल में एक नौजवान लड़के को डेंगू की शिकायत के बाद भर्ती कराया गया। भर्ती करते समय मरीज के खून में 80 हजार प्लेटलेट्स थीं और वह अच्छी खासी हालत में अपने पैरों पर चलकर अस्पताल आया था। मरीज के पास दो लाख का मेडिक्लेम होने की वजह से वह सिटी हॉस्पिटल में भर्ती हो गया। मरीज के पास मेडिक्लेम देखकर सिटी हॉस्पिटल के डॉक्टर खुश हो गए और भर्ती होने ही उसके शरीर का सारा टेस्ट कर डाला। डेंगू बीमारी में उसके शरीर का सिटी स्कैन, एमआरआई, अल्ट्रासाउंड जैसे टेस्ट भी कर डाले जिसकी डेंगू में जरूरत भी नहीं होती। भर्ती होने के बाद ही मरीज को प्लेटलेट्स की कमी दिखाकर डराया जाने लगा। खून की जांच में उसके शरीर की प्लेटलेट्स दिनों दिन घटती जा रही थीं। उसके परिवार वालों को O पॉजिटिव ब्लड ग्रुप वाले तीन चार डोनर लाने को कहा गया। अस्पताल के डाक्टरों ने सोचा कि मरीज ऐसी हालत में डोनर का इंतजाम शायद ना कर सके और डर जाए ताकि वे उससे और पैसे कमा सकें। जब अस्पताल के डाक्टरों ने देखा कि मरीज को प्लेटलेट्स देने वाले डोनर मिल गए हैं तो उनकी चाल फेल होने लगी। अस्पताल के डाक्टर तरह तरह के बहाने बनाने लगे और अंत में बाजार से खरीदा हुआ प्लेटलेट्स ही चढ़ाया। बाजार से खरीदे हुए प्लेटलेट्स से मरीज ठीक नहीं हुआ और बाद में अस्पताल के ही किसी आदमी ने उसे प्लेटलेट्स डोनेट करके उसकी जान बचाई। मरीज के परिवार वाले अस्पताल की नीयत समझ चुके थे। मरीज के दोस्त ने यह बात देशी मीडिया को बताई। मरीज के दोस्त ने अस्पताल के डाक्टरों से देसी मीडिया सच खबर का दोस्त होने बात बताई तब जाकर अस्पताल के डोक्टरों ने मरीज का सही इलाज किया।
मरीज बाहर आकर यही बोला ‘भगवान प्राइवेट अस्पतालों के चक्कर में किसी को ना फंसायें’।
ये तो सिर्फ एक अस्पताल की कहानी बताई गयी है। यही हालत मूलचंद हॉस्पिटल और मैक्स हॉस्पिटल की भी है। ऐसे अस्पतालों का एक ही मकसद होता है ‘लूट सको तो लूट लो’।
अस्पतालों में आईसीयू एक ऐसा कक्ष है, जहाँ मरीज़ के परिवारजनों एवं रिश्तेदारों के प्रवेश पर अंकुश रहता है और मरीज़ के वेन्टीलेटर पर होने के कारण पता नहीं चलता कि मरीज़ जीवित अथवा मृतक। यह सच्चाई केवल डॉक्टर को मालूम होती है। इस तरह के समाचारों की भी आज कमतायी नहीं कि मरीज़ के परिवारजनों से अधिक से अधिक धन खींचने के चक्कर में मृतक को वेन्टीलेटर पर जीवित रखा जाता है।
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