आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
पहले यूपी, फिर गुजरात, महाराष्ट्र और उसके बाद बाकी देश में दलितों के नाम पर दंगे भड़काने की कोशिशें चल रही हैं। पिछले 3-4 साल में दलितों के कई नेता पैदा हो चुके हैं। इन सभी नेताओं में एक बात समान है वो ये कि ये सभी बाबा साहब अंबेडकर का नाम तो लेते हैं, लेकिन उनके अनुयायी नहीं हैं। ये सभी कांग्रेस के उस गुप्त प्लान का हिस्सा हैं जो उसने 2019 के चुनाव में जीत के लिए तैयार किया है। जिग्नेश मेवाणी हो या कोई और, इन सभी की जांच करें तो पता चलता है कि वो कम्युनिस्ट हैं और पिछले कुछ समय से कांग्रेस के संपर्क में हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के साथ कैसे रिश्ते थे। तो सवाल उठता है कि कांग्रेस, कम्युनिस्टों और अनुसूचित जातियों के तथाकथित नेताओं में अचानक पैदा हुई नाराजगी और परेशानी का कारण क्या है?
इतिहास के पृष्ठों को पलटने पर ज्ञात होता है कि जिस तरह कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सिक्के के एक ही पहलू है, ठीक वही स्थिति कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की है। कांग्रेस घोटाले और कम्युनिस्ट इतिहास में छेड़छाड़ कर वास्तविक इतिहास को धूमिल कर कांग्रेस की तुष्टिकरण नीति को सफल करने में कार्यरत रह कर जनता को मूर्ख बनाते रहे। लेकिन समय बदलने के साथ-साथ इनके समर्थक जातियों के उत्थान के नाम पर पार्टियाँ बनाकर जनता को मूर्ख बनाने में लग गए। क्या इन नेताओं को नहीं मालूम की कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा निर्धारित कर रखी है। फिर किस आधार पर आरक्षण के नाम पर जनता को पागल बना रहे हैं।
आरक्षण और पिछली जातियों के उत्थान के नाम पर बनी पार्टियों के पदाधिकारियों और संरक्षणों के बैंक खाते देखने पर इनके किसी अनुयायी ने इनसे यह पूछने का साहस नहीं किया कि "आखिर दलित नेता बनते ही ऐसा कौन-सा व्यापार कर रहे हो कि इतना दौलत का अम्बार लग रहा है? तुम्हे देख कोई नहीं कहा सकता कि दलित इतना मज़लूम भी हो सकता है?"
जबकि इस आरक्षण से कायस्थ, ब्राह्मण और वैश्य समाज कितना कुण्डित हो रहा है, किसी को चिंता नहीं। हर जगह आरक्षण, स्कूल, कॉलेज और किसी भी कम्पटीशन की फीस में भारी छूट, फिर भी रोना रोते रहते हो, याद रखों, जिस दिन ये तीनो समाज एक होकर अपने समाज के लिए इसी तरह की माँग लेकर सड़क पर आएंगे, उस स्थिति में इन नेताओं का क्या हश्र होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। इतनी अति अच्छी नहीं होती, इस बात को दलित नेता अच्छी तरह समझ लें। यह कटु सच्चाई है।
पहले यूपी, फिर गुजरात, महाराष्ट्र और उसके बाद बाकी देश में दलितों के नाम पर दंगे भड़काने की कोशिशें चल रही हैं। पिछले 3-4 साल में दलितों के कई नेता पैदा हो चुके हैं। इन सभी नेताओं में एक बात समान है वो ये कि ये सभी बाबा साहब अंबेडकर का नाम तो लेते हैं, लेकिन उनके अनुयायी नहीं हैं। ये सभी कांग्रेस के उस गुप्त प्लान का हिस्सा हैं जो उसने 2019 के चुनाव में जीत के लिए तैयार किया है। जिग्नेश मेवाणी हो या कोई और, इन सभी की जांच करें तो पता चलता है कि वो कम्युनिस्ट हैं और पिछले कुछ समय से कांग्रेस के संपर्क में हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के साथ कैसे रिश्ते थे। तो सवाल उठता है कि कांग्रेस, कम्युनिस्टों और अनुसूचित जातियों के तथाकथित नेताओं में अचानक पैदा हुई नाराजगी और परेशानी का कारण क्या है?
इतिहास के पृष्ठों को पलटने पर ज्ञात होता है कि जिस तरह कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सिक्के के एक ही पहलू है, ठीक वही स्थिति कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की है। कांग्रेस घोटाले और कम्युनिस्ट इतिहास में छेड़छाड़ कर वास्तविक इतिहास को धूमिल कर कांग्रेस की तुष्टिकरण नीति को सफल करने में कार्यरत रह कर जनता को मूर्ख बनाते रहे। लेकिन समय बदलने के साथ-साथ इनके समर्थक जातियों के उत्थान के नाम पर पार्टियाँ बनाकर जनता को मूर्ख बनाने में लग गए। क्या इन नेताओं को नहीं मालूम की कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा निर्धारित कर रखी है। फिर किस आधार पर आरक्षण के नाम पर जनता को पागल बना रहे हैं।
आरक्षण और पिछली जातियों के उत्थान के नाम पर बनी पार्टियों के पदाधिकारियों और संरक्षणों के बैंक खाते देखने पर इनके किसी अनुयायी ने इनसे यह पूछने का साहस नहीं किया कि "आखिर दलित नेता बनते ही ऐसा कौन-सा व्यापार कर रहे हो कि इतना दौलत का अम्बार लग रहा है? तुम्हे देख कोई नहीं कहा सकता कि दलित इतना मज़लूम भी हो सकता है?"
जबकि इस आरक्षण से कायस्थ, ब्राह्मण और वैश्य समाज कितना कुण्डित हो रहा है, किसी को चिंता नहीं। हर जगह आरक्षण, स्कूल, कॉलेज और किसी भी कम्पटीशन की फीस में भारी छूट, फिर भी रोना रोते रहते हो, याद रखों, जिस दिन ये तीनो समाज एक होकर अपने समाज के लिए इसी तरह की माँग लेकर सड़क पर आएंगे, उस स्थिति में इन नेताओं का क्या हश्र होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। इतनी अति अच्छी नहीं होती, इस बात को दलित नेता अच्छी तरह समझ लें। यह कटु सच्चाई है।
क्यों परेशान हैं दलितों के मसीहा?
देश में अचानक पैदा किए जा रहे दलित आंदोलन के पीछे दरअसल गुजरात चुनाव के नतीजों का बड़ा हाथ है। गुजरात के चुनावों में बीजेपी की जीत का जो सबसे बड़ा कारण है उससे कांग्रेस ही नहीं, दलितों के नाम पर रोजी-रोटी चलाने वाले एक दर्जन से ज्यादा स्वयंभू नेता बेहद परेशान हैं। सीएसडीएस-लोकनीति के आंकड़ों के मुताबिक गुजरात चुनाव में बीजेपी के अनुसूचित जाति वोटों में 70 फीसदी का भारी उछाल दर्ज किया गया है। किसी भी एक पार्टी को किसी एक वर्ग के वोटों के शेयर के तौर पर इसे बेहद अहम बढ़ोतरी माना जा सकता है। गुजरात में 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को अनुसूचित जातियों के करीब 22 फीसदी वोट मिले थे। जबकि 2017 में ये बढ़कर 39 फीसदी हो गया है। कांग्रेस इसी बात से परेशान है। उसे लग रहा है कि अगर यही ट्रेंड रहा तो आने वाले दिनों में उसका जीतना नामुमकिन हो जाएगा। लिहाजा देश में दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले कई नेताओं को अचानक पेट में मरोड़ उठने लगे।
बीजेपी के दलित वोट क्यों बढ़े?
सवाल ये है कि बीजेपी को दलित विरोधी साबित करने की विपक्षी पार्टी से लेकर मीडिया तक की इतनी कोशिशों के बावजूद बीजेपी को दलितों के वोट क्यों बढ़ रहे हैं। इसका जवाब है सरकार की वो नीतियां जिनसे गरीबों और निचले तबकों की जिंदगी आसान हुई है। अब तक दलितों के नाम पर राजनीति करने वाली ज्यादातर पार्टियां अमीर दलितों के कल्याण तक सीमित रही हैं, गरीब और जरूरतमंद दलित परिवारों की हालत में खास सुधार नहीं हुआ। लेकिन मोदी सरकार आने के बाद से सब्सिडी और मनरेगा की मजदूरी सीधे बैंक खाते में मिलने से उनकी जिंदगी काफी आसान हुई है। अपने बैंक खाते में पैसा देखकर जो सुखद अहसास होता है उसका इसमें बड़ा हाथ है। साल 2017 में मोदी सरकार ने 60 करोड़ लोगों के बैंक खातों में सीधे सब्सिडी ट्रांसफर किया है, जो कि रिकॉर्ड है। छोटे कारोबार के लिए मुद्रा योजना, उज्जवला योजना और मुफ्त बिजली कनेक्शन की योजनाओं ने भी उनकी जिंदगी को आसान बनाया है।
दलित नेताओं के साथ कौन है?
अब यह प्रश्न उठता है कि दलित आंदोलनों में दिखाई दे रहे नए-नवेले नेताओं के पीछे उनके समर्थक कौन हैं? दरअसल ज्यादातर मिडिल क्लास के वो लोग हैं जो इन दलित आंदोलनों के बहकावे में आ जाते हैं। खुफिया जानकारियों के मुताबिक पुणे में हुई घटना और उसके बाद जो कुछ हुआ उसमें दलित नौजवानों से ज्यादा मुसलमान शामिल थे। गुजरात के ऊना में दलितों पर अत्याचार के मामले के आरोपियों में भी एक मुसलमान का नाम सामने आ चुका है। ऊना में जिग्नेश मेवाणी की अगुवाई में हुए विरोध-प्रदर्शनों में भी ज्यादा संख्या टोपीधारी मुसलमानों की ही हुआ करती थी।
मायावती से लेकर जिग्नेश मेवाणी तक, दलितों की राजनीति करने वालों की उलझन ही यही है कि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद असली दलित तबका बीजेपी के राज में खुद को सुरक्षित और समृद्ध महसूस कर रहा है, जिसका नतीजा 2014 के बाद से लगभग हर चुनाव में दिखाई दे रहा है।
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