केजरीवाल के साथ डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया, मंत्री - गोपाल राय और सत्येंद्र जैन भी एलजी हाउस में धरने पर बैठे हैं. (फोटो साभार - @AamAadmiParty) |
Handed him this letter. LG refuses to take action. LG is under constitutional duty to act. Left wid no option, we have politely told LG that we will not leave till he acts on all points. We hv come out of his chamber n sitting in his waiting room
After LG refuses to take action, Delhi CM @ArvindKejriwal said that along with @msisodia @SatyendarJain & @AapKaGopalRai he we will not leave till @LtGovDelhi acts on all points.
All are sitting in his waiting room.
गौरतलब है कि मुख्य सचिव अंशु प्रकाश पर केजरीवाल के आवास पर फरवरी में हुए कथित हमले के बाद से आप सरकार और नौकरशाही के बीच तकरार चल रही है.
बेवजह धरना दे रहे हैं केजरीवाल : उपराज्यपाल
वहीं दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने शनिवार को कहा कि अरविंद केजरीवाल और उनके तीन मंत्री यहां राजनिवास में एक और बेवजह धरना दे रहे हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री ने उन्हें अधिकारियों को वहां बुलाने और उनकी हड़ताल खत्म कराने की धमकी दी है. उपराज्यपाल (एलजी) कार्यालय ने एक बयान में कहा कि बैजल ने केजरीवाल से मुलाकात के दौरान कहा कि अधिकारी किसी हड़ताल पर नहीं हैं और मुख्यमंत्री को विश्वास का माहौल बनाने तथा नौकरशाही की वास्तविक समस्याओं का हल करने की सलाह दी.
अवलोकन करें:--
क्या धरना ही अरविंद केजरीवाल का राजधर्म है?
चार महीने पहले दिल्ली के चीफ सेक्रेटरी अंशु प्रकाश से हुए विवाद के बाद से कैमरों से दूरी बनाकर चल रहे केजरीवाल एक बार फिर धरना मोड में आ गए हैं. इस बार वे रेल भवन के सामने की सड़क या जंतर-मंतर जैसे परिचित स्थानों के बजाय दिल्ली के राजनिवास में ही धरनानशीं हो रहे हैं. केजरीवाल की मांग है कि दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आइएएस अफसरों की कथित हड़ताल खत्म कराएं. जब तक यह हड़ताल खत्म नहीं होती, तब तक वे राजनिवास से नहीं हटेंगे.
बढ़ेगी केजरीवाल की राजनैतिक अस्वीकार्यता
यह धरना कितना जायज या जरूरी है, इसकी पड़ताल तो की ही जाएगी, लेकिन इसके पहले यह भी समझना होगा कि कहीं यह सब करके केजरीवाल राजनीति और अफसरशाही में अपनी अस्वीकार्यता और ज्यादा तो नहीं बढ़ा रहे हैं. और कहीं ऐसा न हो कि उनके अप्रत्याशित व्यवहार के कारण अफसर और नेता उनसे किनारा करने लगें. पाठकों को याद होगा कि 2014 लोकसभा चुनाव के पहले जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने केजरीवाल को मिलने के लिए समय देने से मना कर दिया था. इस बार जब दिल्ली में धुंध छायी तब पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी केजरीवाल से मुलाकात करने से कन्नी काटते रहे. यही हाल हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर का रहा.
यह धरना कितना जायज या जरूरी है, इसकी पड़ताल तो की ही जाएगी, लेकिन इसके पहले यह भी समझना होगा कि कहीं यह सब करके केजरीवाल राजनीति और अफसरशाही में अपनी अस्वीकार्यता और ज्यादा तो नहीं बढ़ा रहे हैं. और कहीं ऐसा न हो कि उनके अप्रत्याशित व्यवहार के कारण अफसर और नेता उनसे किनारा करने लगें. पाठकों को याद होगा कि 2014 लोकसभा चुनाव के पहले जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने केजरीवाल को मिलने के लिए समय देने से मना कर दिया था. इस बार जब दिल्ली में धुंध छायी तब पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी केजरीवाल से मुलाकात करने से कन्नी काटते रहे. यही हाल हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर का रहा.
सरकारी बैठकों में कैसे मिलेगा न्योता
असल में, ज्यादातर नेताओं को लगने लगा है कि अगर वे केजरीवाल से मिलेंगे तो पता नहीं कौन सा नया तमाशा खड़ा हो जाए. और अब जब वे बिना बताए राजनिवास पर धरने पर बैठ गए हैं, तो हो सकता है प्रधानमंत्री या नीति आयोग तक अपनी बैठकों में मुख्यमंत्री को बुलाने से पहले दस बार सोचें कि कहीं कोई नया बखेड़ा खड़ा न हो जाए.
असल में, ज्यादातर नेताओं को लगने लगा है कि अगर वे केजरीवाल से मिलेंगे तो पता नहीं कौन सा नया तमाशा खड़ा हो जाए. और अब जब वे बिना बताए राजनिवास पर धरने पर बैठ गए हैं, तो हो सकता है प्रधानमंत्री या नीति आयोग तक अपनी बैठकों में मुख्यमंत्री को बुलाने से पहले दस बार सोचें कि कहीं कोई नया बखेड़ा खड़ा न हो जाए.
केजरीवाल क्या वाकई धरने का मर्म जानते हैं
धरना राजनीति में महारत हासिल कर चुके केजरीवाल निश्चित तौर पर देश में धरने के इतिहास और जन्म के बारे में जानते ही होंगे. भारतीय राजनीति में उपवास, धरना प्रदर्शन, हड़ताल और असहयोग को महत्वपूर्ण औजार बनाने का काम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने शुरू किया था. गांधी जी के पास इन सब चीजों की आध्यात्मिक वजहें तो थी हीं, साथ ही यह भी उद्देश्य था कि सरकार से हिंसक तरीके से मांग मनवाने की कोशिश करने के बजाय अहिंसक तरीके से बात मंगवाने का दबाव डाला जाए. गांधी जी ने जो परंपरा विकसित की उसमें इस तरह के विरोध की पूर्व सूचना सरकार, प्रशासन और संबंधित व्यक्ति को देने का रिवाज बन गया. यह सुखद संयोग है कि आजादी के बाद मूल्यों में ह्रास होने के बावजूद यह परंपरा बनी रही.
धरना राजनीति में महारत हासिल कर चुके केजरीवाल निश्चित तौर पर देश में धरने के इतिहास और जन्म के बारे में जानते ही होंगे. भारतीय राजनीति में उपवास, धरना प्रदर्शन, हड़ताल और असहयोग को महत्वपूर्ण औजार बनाने का काम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने शुरू किया था. गांधी जी के पास इन सब चीजों की आध्यात्मिक वजहें तो थी हीं, साथ ही यह भी उद्देश्य था कि सरकार से हिंसक तरीके से मांग मनवाने की कोशिश करने के बजाय अहिंसक तरीके से बात मंगवाने का दबाव डाला जाए. गांधी जी ने जो परंपरा विकसित की उसमें इस तरह के विरोध की पूर्व सूचना सरकार, प्रशासन और संबंधित व्यक्ति को देने का रिवाज बन गया. यह सुखद संयोग है कि आजादी के बाद मूल्यों में ह्रास होने के बावजूद यह परंपरा बनी रही.
इस परंपरा के बने रहने से प्रदर्शन के दौरान सुरक्षा उपाय कर लिए जाते हैं, ताकि जन धन की हानि न हो, दूसरा यह कि संबंधित पक्ष के पास धरना शुरू होने से पहले संवाद की गुंजाइश बनी रहती है. आखिर धरने का मूल उद्देश्य तो समस्या का निराकरण ही है. लेकिन केजरीवाल इस परंपरा को बार-बार तोड़ देते हैं. गांधी के विश्वास के तरीके को केजरीवाल छापामार अहिंसक तरीके में बदल रहे हैं. गांधी जी इस तरह के तरीके को उचित नहीं मानते थे. बापू तो यहां तक कहते थे कि वे अपने विरोधियों के खिलाफ कभी उपवास पर नहीं बैठेंगे. क्योंकि ऐसा उपवास ब्लैकमेलिंग होगा. गांधी उन लोगों को जगाने के लिए उपवास पर बैठते थे जो उनके अपने होते थे, और उपवास का मकसद उन लोगों की अंतरात्मा को जगाकर हृदय परिवर्तन करना होता था. गांधी ने एक बार यहां तक कहा कि वे जनरल डायर के खिलाफ उपवास नहीं करेंगे, क्योंकि डायर उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं. केजरीवाल और उपराज्यपाल के मामले में दुश्मनी का रिश्ता तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन अविश्वास का रिश्ता तो है ही. यह अविश्वास आने वाले समय में रिश्तों को न सिर्फ बिगाड़ेगा, बल्कि केजरीवाल के साथ उच्च स्तरीय बैठकों की संभावनाएं भी कम करेगा.
उपराज्यपाल और मुख्य सचिव भी निभाएं मर्यादा
ऐसा नहीं है कि केजरीवाल सिर्फ बैजल से ही परेशान हों, इसके पहले उपराज्यपाल रहे नजीब जंग से भी उनकी रोज तू तू मैं मैं हुआ करती थी. कानूनी बारीकियां चाहे कुछ भी हों, लेकिन इतना तो दिखता ही है कि एक चुनी हुई सरकार के हर फैसले पर राजनिवास लाल स्याही से क्रॉस का निशाना बनाने पर आमादा रहता है. अगर केजरीवाल आक्रामक हो जाते हैं तो राजनिवास ने भी कभी इस बात की बहुत फिक्र नहीं की कि इस सब विवाद से महामहिम के पद की गरिमा कितनी कम होती जा रही है.
ऐसा नहीं है कि केजरीवाल सिर्फ बैजल से ही परेशान हों, इसके पहले उपराज्यपाल रहे नजीब जंग से भी उनकी रोज तू तू मैं मैं हुआ करती थी. कानूनी बारीकियां चाहे कुछ भी हों, लेकिन इतना तो दिखता ही है कि एक चुनी हुई सरकार के हर फैसले पर राजनिवास लाल स्याही से क्रॉस का निशाना बनाने पर आमादा रहता है. अगर केजरीवाल आक्रामक हो जाते हैं तो राजनिवास ने भी कभी इस बात की बहुत फिक्र नहीं की कि इस सब विवाद से महामहिम के पद की गरिमा कितनी कम होती जा रही है.
वे किसके आदेशों पर कम करते हैं, यह तो वहीं जानें, लेकिन अगर मुख्यमंत्री को लग रहा है कि अफसर नाफरमानी कर रहे हैं, तो उपराज्यपाल को दखल देना ही चाहिए. क्योंकि चाहे अफसर हों या कर्मचारी वे किसी के निजी सेवक तो हैं नहीं, वे सिविल सर्वेंट यानी जन सेवक हैं. अगर वे सेवा में कोताही बरत रहे हैं तो इसका नुकसान सीधे तौर पर दिल्ली की ढाई करोड़ जनता को हो रहा है.
इसी तरह चीफ सेक्रेटरी के साथ भले ही कैसा व्यवहार हुआ हो, लेकिन वे जनता की सेवा के अपने काम से मुंह नहीं मोड़ सकते. वे मुख्यमंत्री से मन ही मन खुन्न्स रखें और कानूनी लड़ाई लडें यह अलग बात है, लेकिन सरकार के काम में किसी झगड़े की वजह से हीला-हवाली करना गंभीर मामला है. अगर उन्हें लगता है कि वे काम नहीं कर पा रहे हैं, तो उन्हें अपने तबादले के लिए अर्जी लगानी चाहिए. लेकिन पूरी सरकार को पंगु बना देना, आपराधिक बेईमानी है.
मूक दर्शक केंद्र किस काम का
इस तरह के मामलों में हमेशा यह देखने में आता है कि केंद्र सरकार इस तरह मूकदर्शक बन जाती है, जैसे दिल्ली की जनता के प्रति उसकी कोई जवाबदेही नहीं है. जब दिल्ली सरकार का मुखिया उपराज्यपाल है और उपराज्यपाल की रिपोर्टिंग केंद्र सरकार को है, तो केंद्र को हस्तक्षेप या मध्यस्थ की भूमिका निभानी ही चाहिए. केंद्र इस अर्ध राज्य को अपने भरोसे पर नहीं छोड़ सकता. लेकिन चाहे एमसीडी कर्मचारियों की हड़ताल हो, चाहे चीफ सेक्रेटरी का मामला हो, या अब आइएएस अफसरों की कथित हड़ताल हो, हर बार केंद्र खामोश सा नजर आया.
इस तरह के मामलों में हमेशा यह देखने में आता है कि केंद्र सरकार इस तरह मूकदर्शक बन जाती है, जैसे दिल्ली की जनता के प्रति उसकी कोई जवाबदेही नहीं है. जब दिल्ली सरकार का मुखिया उपराज्यपाल है और उपराज्यपाल की रिपोर्टिंग केंद्र सरकार को है, तो केंद्र को हस्तक्षेप या मध्यस्थ की भूमिका निभानी ही चाहिए. केंद्र इस अर्ध राज्य को अपने भरोसे पर नहीं छोड़ सकता. लेकिन चाहे एमसीडी कर्मचारियों की हड़ताल हो, चाहे चीफ सेक्रेटरी का मामला हो, या अब आइएएस अफसरों की कथित हड़ताल हो, हर बार केंद्र खामोश सा नजर आया.
तीनों पक्षों का व्यवहार ऐसा लगता है कि जैसे उन सबका अलग-अलग एजेंडा हो. और तीनों के एजेंडा से जनता गायब हो. जबकि तीनों पक्षों की आज की जो हैसियत है, वह जनता की ही कृपा से है. सबका राजधर्म जनहित होना चाहिए. लेकिन यहां तो हड़ताल के खिलाफ धरना और धरने के बाद धमकी के आरोप लग रहे हैं. यह सब बहुत गड़बड़ है, बहुत ही गड़बड़.
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