'वनवास' की कहानी दीपक त्यागी नाम के रिटायर्ड ऑफिसर की है। वो अपने तीन बेटों और बहूओं के साथ हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में रहते हैं। मगर डिमेंशिया की वजह से वो चीज़ें भूलने लगे हैं। जिसकी वजह से बहूओं के साथ उनकी तकरार होती रहती है। इससे निजात पाने के लिए उनके बच्चे तय करते हैं कि उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया जाए। पिता त्यागी का जन्मदिन मनाने के बहाने बच्चे उन्हें बनारस ले जाते हैं। मगर वृद्धाश्रम की बजाय बनारस के एक घाट पर छोड़ आते हैं. दीपक त्यागी को अपने बच्चों के नाम के अलावा कुछ भी नहीं याद। उन्हें लगता है कि उनके बच्चे कहीं खो गए हैं। जिन्हें ढूंढने के लिए वो दर-दर की ठोकरें खाते हैं। तभी उनकी मुलाकात होती है वीरू वॉलंटियर नाम के एक चोर से. पहले तो वीरू, दीपक को भी गच्चा देने की कोशिश करता है। मगर फिर कुछ ऐसा होता है कि दीपक त्यागी को उनके घर पहुंचाना वीरू का मक़सद बन जाता है।
कहने को तो आप 'वनवास' को राजेश खन्ना की 'अवतार' और अमिताभ बच्चन की 'बागबान' से भी कंपेयर कर सकते हैं। मगर उन फिल्मों की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि वो आपको 2-3 घंटे तक एंगेज कर सकती हैं। कहीं भी आपको बोरियत महसूस नहीं होने देतीं। आपको इमोशनल करती हैं. साथ ही साथ एक अच्छा संदेश देकर जाती हैं. मगर 'वनवास' अधिकतर मौकों पर इनमें से कोई भी चीज़ हीं कर पाती। ये फिल्म जो कहना चाहती है, वो बहुत प्रासंगिक बात है। मगर उसे कहने का जो तरीका चुनती है, आप उसके साथ सहमत नहीं होते। या उससे रिलेट नहीं कर पाते. या उसके ज्ञान देने वाले टोन से पक जाते हैं।
'वनवास' को देखते हुए मुझे ये रियलाइज़ हुआ कि इस फिल्म का एंगल कुछ और है। ये फिल्म हर चीज़ का दोषी बच्चों को नहीं मानती। उन्हें थोड़ा ग्रे स्पेस में जाने देती है. जो कि फैमिली फिल्मों में कम ही देखने को मिलता है। इस फिल्म का फोकस इस बात पर ज़्यादा है कि जब एक बुजर्ग जोड़ा जब अलग होता है, तो उन्हें बच्चों से ज़्यादा एक-दूसरे की कमी महसूस होती है। क्योंकि उन्हें एक लंबा समय साथ में बिताया है। एक-दूसरे के बग़ैर रहने के आदि नहीं हैं। हालांकि यही बात 'बागबान' इससे बेहतर तरीके से कह चुकी है। मगर वो बिल्कुल इन योर फेस था। काफी रोमैंटिसाइज़्ड था। 'वनवास' सिंपल और रियल तरीके से वो बात कहती है। इसलिए शायद उसका इम्पैक्ट कम होता है।
'वनवास' तकरीबन पौने तीन घंटे की फिल्म है। इस फिल्म को देखते हुए आपको एक-एक मिनट गुज़रता हुआ महसूस होता है। फिल्म की लंबाई, इसकी सबसे बड़ी खामियों में से एक है। एडिटिंग में इसे टाइट किया जा सकता था। जहां मेकर्स से चूक हुई। फिल्म के कुछ सीन्स में स्लो-मोशन टूल का इस्तेमाल किया गया है। जो कि आज कल बड़ा ट्रेंड में है. मगर ये फिल्म उस टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल में भी गड़बड़ कर देती है। क्योंकि वो सही तरीके से नहीं हुआ है।
'वनवास' में एक वीरू नाम का किरदार है। जिसे मीना नाम लड़की से प्यार है। मीना को उसकी मौसी ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। इसलिए वीरू, मौसी से मीना का हाथ मांगने जाता है। 'शोले' को इससे खराब टिप ऑफ द हैट शायद ही कभी मिला हो। अगर आप ध्यान देंगे, तो 'वनवास' में आपको 'ब्रह्मास्त्र' का रेफरेंस भी मिलेगा। क्योंकि दोनों फिल्मों की शूटिंग बनारस में हुई है। 'वनवास' में एक रोमैंटिक गाना है, जिसका नाम तो नहीं याद। मगर उसे भी 'केसरिया' गाने वाले स्टाइल में शूट किया गया है। वही संकरी गलियां, वही सीढ़ियां, वही फूलों का उड़ना। यहां तक की दोनों गानों में हीरोइनों की ड्रेस भी मेल खाती है।
'वनवास' को सबसे ज़्यादा नुकसान उसके डायरेक्टर की वजह से पहुंचता है। क्योंकि अनिल शर्मा ने जब से फिल्में बनानी शुरू कीं, उसके बाद से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है। जिससे अनिल कैच-अप नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए उनका क्राफ्ट डेटेड लगने लगा है। ये बात मुझे 'गदर 2' के बारे में भी लगी थी। और यही बात मैं 'वनवास' के बारे में भी कह रहा हूं। अगर यही फिल्म कोई और डायरेक्टर बनाए, तो शायद उसका इम्पैक्ट ज़्यादा हो।
'वनवास' में नाना पाटेकर ने दीपक त्यागी का रोल किया है। वैसे तो पूरी फिल्म में ही नाना फॉर्म में हैं। मगर कुछ सीन्स में आपको पता लगता है कि उन्हें बतौर एक्टर इतना हाई क्यों रेट किया जाता है। और ये वो सीन्स हैं, जिनमें वो बात नहीं कर रहे। उत्कर्ष शर्मा ने वीरू वॉलंटियर नाम के अनाथ लड़के का रोल किया है, जो बनारस की घाटों पर छोटी-मोटी चोरियां करता है। उत्कर्ष का काम ठीक है. मगर दो चीज़ें बहुत खटकती हैं। वो तकरीबन फिल्म के हर सीन में कहीं न कहीं से चले आते हैं। जिस पर उनका बनारसी एक्सेंट भयंकर बनावटी और ओवर द टॉप लगता है। सिमरत कौर ने मीना नाम की डांसर का रोल किया है। उस किरदार का कोई सिर-पैर नहीं है। वो फिल्म में वीरू के भीतर बदलाव लाने के लिए फिल्म में रखा गया है। इसके अलावा राजपाल यादव, अश्विनी कालसेकर और मुश्ताक खान जैसे एक्टर्स भी इस फिल्म का हिस्सा हैं। मगर उनके करने के लिए कुछ खास है नहीं।
'वनवास' जैसी फिल्में चाहे जैसी बनी हों, आपकी आंखें तो नम कर ही देती हैं। इसे एक तरह से डायरेक्टर की विक्ट्री के तौर पर देखा जाना चाहिए। मगर इस चक्कर में बाकी खामियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। भाव पक्ष और कला पक्ष को अलग-अलग रखा जाना चाहिए। ख़ैर, 'वनवास' उस विरासत को आगे नहीं बढ़ा पाती, जिसकी नींव 'बागबान' ने रखी थी। नाना पाटेकर के क्लास एक्ट के लिए इसे एक बार देखा जाना चाहिए।
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