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क्या राहुल गाँधी मुग़ल साम्राज्य के अंतिम अध्याय यानि बहादुर शाह ज़फ़र सिद्ध होंगे ?

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आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
वैसे तो यह टिप्पणी कांग्रेस के तपस्वी और निर्भीक नेता बाबू गंगाशरण सिंह ने भारत-पाकिस्तान युद्ध से कुछ समय पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के लिए की थी, लेकिन आज यह टिप्पणी पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी पर सटीक बैठती है।
बाबू गंगाशरण सिंह इस्पाती नेता थे। आज कांग्रेस में ऐसे नेताओं की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज तो कांग्रेस में प्लास्टिक के नेता भी नहीं है। गंगा बाबू ने लुंजपुंज और ढुलमुलिया लाल बहादुर शास्त्री की कार्यशैली से बेहद ख़फ़ा थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था : कांग्रेस अब मुग़ल साम्राज्य की तरह राजनीति का अंतिम अध्याय बनती जा रही है और लाल बहादुर शास्त्री बहादुर शाह ज़फ़र के ताज़ा संस्करण हैं। बाबू गंगाशरण सिंह रीढ़ वाले नेता थे और रीढ़ में स्टील की रॉड डलने से पहले भी उनका मेरुदंड लौह सशक्त था। उन्होंने यह टिप्पणी शास्त्री जी की उस कार्यशैली पर की थी, जैसा अंदाज़ आजकल राहुल गांधी का हम देखते हैं। लेकिन शास्त्री के लिए गंगाशरण की काफी हद तक गलत थी, क्योंकि पार्टी स्तर पर शास्त्री की भूमिका कुछ भी रही हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कभी राष्ट्र को झुकने नहीं दिया। हाँ, जहाँ तक राहुल गाँधी की बात है, राहुल वास्तव में कांग्रेस के बहादुर शाह ज़फर सिद्ध हो रहे हैं। इसीलिए राहुल के पार्टी अध्यक्ष बनने की चर्चा के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा था, "जितनी जल्दी हो राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाओ" पहले राहुल ने जो कुछ भी किया हो, लेकिन जुलाई 20 को संसद में जो किया, वास्तव में कांग्रेस को पाताललोक की ओर ले जा रहे हैं। राहुल वाकई अपनी "पप्पू" छाप से बाहर नहीं आ पा रहे।   
कांग्रेस जिस तरह से राज्यों में राजनीति कर रही है और चुनाव जीतना चाहती है, उसे देखें तो उसकी किलेबंदी बहुत ही कमज़ोर दिखाई देती है। उसके नेताओं की चेतना का हाल देखिए। बनारस में पुल गिरता है, सौ लोग मर जाते हैं, और इससे अधिक घायल हो जाते हैं, लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कहीं प्रतिक्रिया ही दिखाई नहीं देती। याद कीजिये, बंगाल के कोलकाता में फ़्लाईओवर हादसे को और उस पर मोदी की प्रतिक्रिया को। क्या मोदी जैसी प्रतिक्रिया देने से राहुल गांधी को कोई रोक रहा था? क्या वे मोदी को उनकी पुरानी टिप्पणी ही याद नहीं दिला सकते थे? लेकिन नहीं। वे यह सब नहीं कर सकते, क्योंकि वे न लोक से जुड़े हैं और न ठीक से संगठन से। वे नीचे से ऊपर आए होते तो उन्हें पाॅलिटिकल पिरामिड के ट्रॉएंगल की बेस लेंथ, ट्राएंगल बेस, ऐपॉथिम लेंथ, स्लैंट हाइट और ऐपेक्स आदि का ठीक से पता होता और वे ज़रूरत के अनुसार अपना कोण चुन सकते; लेकिन अनुभव की भारी कमी के चलते और अपने प्रतिद्वंद्वी के ख़तरनाक़ अनुभवी होने की वजह से वह बार-बार उनके निशाने के ठीक आगे ख़ुद-ब-ख़ुद आ बैठते हैं।
दरअसल, राजनीतिक नेतृत्व की अपरिपक्वता और अनुभवहीनता के चलते न तो कांग्रेस के बंदोबस्त भाजपा जैसे पुख्ता हो पाते हैं और न ही कांग्रेस नेतृत्व में राजनीतिक जिजीविषा और ज्वलनशील कामनाएँ ही दिखाई देती हैं। कांग्रेस के पास न तो कूटनीति दिखाई देती है और न शूटनीति और हूटनीति। इस सबमें भाजपा नेता और उनका विशालकाय कैडर बहुत ही माहिर है। कांग्रेस के पास न तो वैचारिक तपिश दिखाई देती है और न ही आंदोलन की आग है। भाजपा नेता अपनी सीटों और सरकारों के लिए जैसा दमख़म लगाते हैं, वैसा तो कांग्रेस के लोग सोच भी नहीं पाते। कर्नाटक तो दूर, राजस्थान को ही देख लें, जहां भाजपा की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपना चुनाव प्रचार बहुत करीने से शुरू करके रणनीतियां बिछा दी हैं। उन्होंने शतरंज की सारी चालें आजमाना शुरू कर दी हैं। लेकिन कांग्रेस के नेताओं को अभी इस सबके बारे में सोचना और तय करना है। स्थानीय स्तर पर तो इस दल के नेताओं काे इतना भी होश नहीं कि उनके इलाकों में कितने बूथ हैं और सामाजिक समीकरण क्या हैं।
भाजपा में एक निर्भीकता है और कांग्रेस एक डर में जी कर चुनाव की युद्ध भूमि में प्रवेश करती है। वह सबसे पहले अपना सेनापति घोषित करती है और फिर सब लोगों को एकजुट करके युद्ध के मैदान में अपनी पूरी ताकत झोंकती है। इसके विपरीत कांग्रेस अपने सेनापति का चुनाव नहीं कर पाती और उसका नाम तय होने के बावजूद उसे छुपाकर रखती है। इसलिए युद्ध छिड़ने के बाद उसके जितने भी उम्मीदवार सेनापति होते हैं, वे एक दूसरे की मारकाट में अधिक रुचि रखते हैं, बजाय इसके कि वे अपने घोषित सेनापति को विजयी बनाएं। वे राजनीति ऐसे करते हैं, मानो जुआ खेल रहे हों, जबकि राजनीति शुद्ध रूप से शंतरंज है। ठीक सामने बिछी हुई। उसमें बादशाह से लेकर प्यादे तक सब सामने होते हैं।
आप अगर ज़मीनी हालात को देखें तो आज विपक्ष के काम भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अानुषंगिक संगठन या छोटे एनजीओ संगठन कर रहे हैं। किसानों की समस्याओं को या तो थोड़ा बहुत लाल झंडा मज़दूर उठा रहे हैं या फिर भारतीय किसान संघ के लोग गांव-गांव में पहुंच रहे हैं। मज़दूरों की मांगें या तो माकपा-भाकपा और अन्य कुछ इलाकों में उठा रहे हैं या फिर व्यापक स्तर पर भारतीय मजदूर संघ श्रमिकों तक पहुंच रहा है। ऐसे कितने ही संगठन हैं, जो बहुत सक्रिय हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाजपा से जुड़े हुए हैं। लेकिन पीड़ित लोक के दु:ख-दर्द को जानने के लिए कांग्रेस के मुख्य नेताओं और संगठनों के पास देश भर में कहीं कोई समय नहीं है। आरएसएस-भाजपा के विपक्ष के मोर्चे पर सक्रिय होने का मतलब ये नहीं कि वे समस्याओं का समाधान कर रहे हैं, बल्कि ये है कि वे इन नाराज़ तबकों को विरोधी राजनीतिक दलों के पास जाने से रोक दें। इस सुनियोजित और सुचिंतित नीति के कारण ही मोदी का विजय रथ कांग्रेस से रुक नहीं पा रहा है। इन हालात को कांग्रेस के प्रति सहानुभूति रखने वाला वह बुद्धिजीवी वर्ग भी नहीं समझ पा रहा, जो आज तक समय-समय पर कांग्रेस की सरकार रहते अपने लिए कुछ बटर स्लाइसेज जुटा लिया करता था। वह अभी सिर्फ़ रोने-धोने या एक तरफा मोदी सरकार को गिराने में लगा रहता है।
भाजपा के राष्ट्रीय नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह जिस तरह राज्यों में अपने मोहरे जमा रहे हैं, वैसा कांग्रेस कुछ नहीं कर पा रही है। इन दोनों के पास जहां व्यापक नीति और सुचिंतित रणनीति है और पूरा पॉलिटिकल मैकेनिज्म है, वहीं कांग्रेस के पास ऐसा कुछ नहीं है। यह सचाई है कि राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए रणभूमि के योद्धा अगर किसी दल के पास नहीं हैं या कमज़ोर हैं तो वह सत्ता प्राप्ति नहीं कर सकता। कर भी लेगा तो सत्ता छिन जाएगी। कर्नाटक इसका उदाहरण है। कांग्रेस में योद्धा पैदा ही नहीं हो सकते, क्योंकि इस संगठन में तो किसी को योद्धा बनने ही नहीं दिया जाता। कांग्रेस की हालत उस मुग़लिया हरम जैसी है, जहां सिर्फ़ खोजों को ही रखा जा सकता है। कांग्रेस को योद्धाओं से भी डर लगता है और शातिरों से भी। जबकि युद्ध भूमि में योद्धा और शतरंज में शातिर ही काम आते हैं।
कांग्रेस में कोई शतरंज खेल ही नहीं सकता, क्योंकि इस दल में इंदिरा गांधी ही नहीं, नेहरू के बाद से ही कठपुतलियों का खेल राष्ट्रीय मनोरंजन का दर्जा पा चुका है। शास्त्री को भी मौक़ा इसलिए दिया गया था, क्योंकि वे नेहरू की कठपुतली थी। अगर वे भारतीय सेना के विजयी अभियान पर सवार होने के बाद विदेशी धरती पर दिवंगत हुए तो उनकी छवि एक अदने से नेता से सिकंदर जैसी हो गई। कांग्रेस में आप या तो कठपुतली हो, नहीं तो शठपुतली! आपको पार्टी में बर्दाश्त ही नहीं किया जा सकता। कांग्रेस में बेमन से कुछ प्यादे आ भी जाएं तो वे आगे या पीछे ही रह सकते हैं।
लेकिन राजनीति विवशताओं का जाल भी है। यहां ऐसा नहीं है कि आप शंतरंज के सारे मोहरे बिखेर दें और विदेश सैर करने चले जाएं। सियासत के तख्ते से किसी को भी पलायन की करने की अनुमति नहीं होती। और यही वह चीज़ है, जो राहुल गांधी को या कांग्रेस को मुगल साम्राज्य सा बहादुर शाह ज़फ़र से अलग कर देती है। इसके बावजूद कांग्रेस के नेताओं का यह याद रखना चाहिए कि आप समय समय पर लोगों को से जुड़ी समस्याओं को लेकर सड़कों पर आंदोलन का प्रवाह नहीं कर सकते तो आपकी अकर्मण्यता चुनावों में आपकी शवयात्रा ज़रूर निकाल देगी। आंदोलनहीनता कुछ नहीं होती। वह पराजय की शाश्वत मुद्रा ही तो है।
कांग्रेस ने अब जो रास्ता चुन लिया है, वह ठीक वैसा ही है, जैसा कि कोई चांद देखकर ईद मनाने लगे। कहां तो भाजपा अपने आपको विस्तार देती जा रही है और वह अहिन्दी भाषी राज्यों में पांव जमाती जा रही है और कहां कांग्रेस लोगों से दूरियां बनाती जा रही है। यह ज़रूरी नहीं कि किसी दूसरे की दवा आपके भी रोगों का हरण करे। ऐसे में रिएक्शन भी हो सकता है। भाजपा के मुस्लिम अलगाव को अब कांग्रेस ने भी आजमाना शुरू कर दिया है। जिस तरह सूर्य में प्रकाश का एक अंतर्निहित शक्ति पुंज होता है, उसी तरह चांद में आभा अपनी नहीं, सूर्य की होती है। कांग्रेस चांद बनने की तरफ अग्रसर हो रही है आैर भाजपा सूर्य की तरह तपने के लिए उतावली दिख रही है। भाजपा के नेताओं का यह ऐग्रेशन ख़तरनाक़ है। भाजपा के शातिर नेताओं ने कांग्रेस में राहुल गांधी को अनिवार्य रूप से स्थापित भी करवाने में मदद की है, ताकि कर्नाटक जैसी हालात देश में बनते रहें। कर्नाटक को कदाचित कांग्रेस बचा लेती, लेकिन जैसे ही उस दक्षिणी राज्य में राहुल गए, मोदी की मांग हो गई। इसका साफ़ सबक़ है कि अगर कहीं राहुल गए तो मोदी वहां अवश्य ही जाएंगे और इससे ज़मीनी हालात इतने बदल जाएंगे कि दुविधा में फंसा मतदाता जो कांग्रेस के साथ जा सकता है, वह भाजपा के साथ जाने का फैसला कर लेगा। कर्नाटक में यही हुआ। और यही चीज़ मोदी के लिए फ़ायदे की बात है। राहुल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमज़ोरी और भाजपा की एक बड़ी ताक़त बनकर उभरे हैं।
हालात ये हो गए हैं कि मोदी और राहुल में बालि और सुग्रीव की सी स्थिति दिखाई दे रही है। जिस तरह प्रतिद्वंद्वी के सामने आते ही बालि उसकी आधी शक्ति का हरण कर लेता था, उसी तरह मोदी भी पहली बार में भारी नजर आने लगते हैं। इसकी वजहें भी है। कांग्रेस और वामपंथी शक्तियों ने उन्हें सांप्रदायिकता का प्रतीक बनाया, लेकिन मोदी ने सांप्रदायिकता को धार्मिकता में बदलकर अपनी नकारात्मक छवि को सकारात्मक छवि में बदला, जो आम हिन्दू के चित्त चढ़ती गई। जिस हिन्दू को कांग्रेस और इसके समर्थक आतंकवादी घोषित करने में व्यस्त थे, जिसका भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी ने भी अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है। लेकिन मोदी ने सत्ता में आने पर हिन्दू आतंकवाद ड्रामे को समाप्त कर, हिन्दू समाज को नया आयाम दिया। अयोध्या विवाद को विवादित बनाए रखने में कांग्रेस व्यस्त रही। वामपंथियों के साथ मिल कांग्रेस ने खुदाई में मिले राममन्दिर के सबूतों को कोर्ट से छुपाया। रामसेतु पर कोर्ट में विवादित एफेडेविट देते रहे। यानि सच्चाई को अमली जामा पहनाने में कांग्रेस नाकाम रही।
फिर जिस तरह मुग़ल दरबार में किसी में बादशाह की मुग़ालफत करने का साहस नहीं था, ठीक उसी भाँति वर्तमान कांग्रेस में "परिवार" के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं। किसी में इतना भी साहस नहीं कि सरकार से पूछे कि "Anti-communal violence bill" किस मंशा से बनाया गया है? यदि किसी कारणवश, यह बिल संसद के दोनों सदनों में पेश होकर, पारित हो गया होता, निश्चित रूप से समस्त गैर-मुस्लिमों के लिए मुग़ल युग में लगे जजिया से कहीं अधिक घातक होता। मोदी सरकार बनने से समस्त गैर-मुस्लिम समाज में एक नई ऊर्जा का समावेश हुआ है। यही कारण है कि कांग्रेस के बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ में गैर-मुस्लिम मोदी सरकार का गुप्त रूप से समर्थन करते हैं, और "परिवार" का विरोध। शंका है, कि कब कांग्रेस में हिन्दू नेता/कार्यकर्ता  पार्टी से अलग हो जाएं?
इस सन्दर्भ में अवलोकन करिए :--


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भाजपा के भीतर तो मोदी ने वर्चस्व कायम किया ही है, उन्होंने पूरी दुनिया में भी अपने आपको अफलातून की तरह स्थापित कर लिया है। विरोधियों में उनका एक आतंक चित्र बनता है। इसे वे स्वयं भी गढ़ते हैं। यह कहते हुए कि यह मोदी है माेदी। अपनी पर उतर आया तो ठीक नहीं होगा। आक्रमणकारी की यही भाषा हुआ करती है, जो लोगों को लुभाती है। कर्नाटक में दिया गया उनका एक भाषण प्रधानमंत्री की छवि को गिराता और पतित करता है, लेकिन कांग्रेस या वामपंथी इसका कहीं कोई विरोध नहीं कर पाए। लेकिन लोक समाज में मोदी की यह आपत्तिजनक भाषा उन्हें भारी वोट दिला गई। यह चुनावी संस्कृति है कि आपको गाली देने से वोट मिलता है तो नेता इसे क्यों छोड़ेगा। क्या हम भूल गए हैं कि ट्रेड यूनियन आंदोलनों में हमारे प्रगतिशीलतावादी नेता प्रबंधकों और मालिकों के लिए कैसी भाषा का इस्तेमाल किया करते थे? क्या वह पतन नहीं था? लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि मोदी और भाजपा को राजनीतिक संस्कृति की मर्यादा को भंग करने की छूट मिल जाती है।
यह समझने की ज़रूरत है कि मोदी ने सिर्फ़ अपने आपको ही नहीं बदला, उन्होंने राजनीतिक नैरेशन को भी बदला है। कहां तो अटल-आडवाणी दो पार्टी वाले लोकतंत्र को लाना चाहते थे और कहां मोदी शाह कांग्रेस मुक्त सिर्फ़ भाजपा वाले लोकतंत्र की ईजाद करने को उतावले हैं। यह एक बहुत ही ख़तरनाक़ खेल है। विशेषकर बहुलतावाद पर टिके भारत जैसे महान देश के लिए।
राहुल गांधी और मीडिया तथा राजनीति में मौजूद उनके बिना मांगे राजनीतिक रायबहादुरों को चाहिए कि वे अपने विरोधियों को ठीक से समझें। यह सच है कि मोदी और शाह की जोड़ी को किसी चीज़ से न गुरेज, न परहेज और न झिझक है। चाहे सांप्रदायिक रंग हो, संकीर्ण राष्ट्रवाद हो, गोवा में गोमांस की बात हो या शेष देश में गोमांस पर प्रतिबंध हो। यहां तक कि सोवियत रूसे आते-आते पाकिस्तान में मियां नवाज़ शरीफ़ के आंगन में उतरना हो या अपने शपथग्रहण में चिरशत्रु को मेहमान बनाना हो। मुसलमान से प्रेम करना हो या घृणा दिखाना, न कोई वर्जना, न तर्जना और सिर्फ़ गर्जना ही गर्जना। जो वह कश्मीर, मणिपुर, गोवा या मेघालय में अपने लिए पावन मानती है, ठीक वही कांग्रेस या कोई और दल करे तो इसे वह लोकतंत्र के साथ उपहास साबित करने में कुछ कसर उठा नहीं रखेगी। वह बिना किसी लज्जा के पूरी ताक़त लगाएगी और पूरा दमख़म दिखाएगी।
आप देखना कर्नाटक में मोदी भाजपा की सरकार बहुत ताल ठोंककर बनवाएंगे और कांग्रेस जनता दल को साथ लेकर भी कुछ नहीं कर पाएगी। उसके नेताओं में वह दम ही नहीं है कि वे चौधरी देवीलाल या भैरोसिंह शेखावत की तरह राज्यपाल के गिरेबान को पकड़ लें और उसे अनैतिक कदम उठाने से रोक दें। चलिए, वे इतना न भी कर पाएं तो उनमें किसी उपवास टाइप की बेहद खारिज रणनीति का सहारा लेने जैसी हिम्मत दिखाई नहीं देती।
आप कांग्रेस के लोगों को राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में देखिए। वे मानते हैं कि उन्हें तो हाथ-पैर चलाने की ज़रूरत ही नहीं है। जनांदोलन तो छोड़िए, वे मानते हैं कि सब आप ही आप उनकी झोली में आता जाएगा और वे बादशाहत हासिल कर लेंगे। और उधर मोदी शाह की रणनीति ऐसी है कि मामूली प्रतिक्रिया की ज़रूरत हो तो वे हमला करते हैं और अगर कहीं थोड़ा जनबल दिखाना हो तो वे उपद्रव जैसी स्थिति रच देते हैं। अरे, अपनी अकर्मण्यता के कारण, अनीतियों के कारण, जनविरोधी फैसलों के कारण हारते हो और कहते हो कि ईवीएम से हार गए, हद है। कांग्रेस में शक़ील अख़तर जैसे बजरबट्‌टू नेताआें की लंबी फ़ेहरिस्त है, जो इस दल में दीमक की तरह लगे हुए हैं।
क्या कोई सोच सकता है कि उस दल का भविष्य क्या होगा, जहां दीमक को दीपक समझा जाता हो? आपके पास न विचारधारा है, न ज़मीनी लड़ाइयों से कमाया पसीना है तो आप कैसे सोच सकते हैं कि आपको इस मुल्क़ की बादशाहत मिलेगी? यह पार्टी तो सलाहकार भी ऐसे लोगों को बनाती है, जो स्वयं अपने संस्थानों को गर्त में पहुंचाकर गौरवान्वित हैं। यह चिंताएं इसलिए जायज हैं, क्योंकि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ज़रूरी है कि हम विविध लोकतांत्रिक दलों को पूर्ण स्वस्थ बनाकर एक वैविध्य भरा राजनीतिक भारत तैयार करें, जिसके सभी राजनीतिक दल समता, स्वतंत्रता, बंधुता और सामाजिक-आर्थिक न्यायशीलता के पहियों पर दौड़ें और हम एक वैभवपूर्ण भारत का निर्माण कर सकें, जिसमें धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिकता और मनुष्यता के सितारे किसी अाकाशगंगा की तरह दमकें। इन हालात में अगर राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस ने स्थितियों-परिस्थितियों को नहीं समझा तो वाकई यह मुग़ल साम्राज्य के पतन जैसे हालात होंगे और कांग्रेस के वर्तमान बहादुरशाह को कूए यार में दो गज़ ज़मीन भी नहीं मिलेगी।

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To write on general topics and specially on films;THE BLOGS ARE DEDICATED TO MY PARENTS:SHRI M.B.L.NIGAM(January 7,1917-March 17,2005) and SMT.SHANNO DEVI NIGAM(November 23,1922-January24,1983)

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