नवम्बर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी की घोषणा कर रहे थे,
तब किसी को अंदाजा नहीं था कि आने वाले कुछ महीनों में उन्हें किन मुसीबतों
का सामना करना पड़ेगा? अपने ही पैसे के लिए उन्हें अपनी जान भी देनी पड़ेगी.
किसानों को अपनी नकदी फसल औने-पौने दामों में बेचनी पड़ेगी. मजदूरों को काम
से हाथ धोना पड़ेगा। न्यूज़ चैनलों पर कालाधन गंगा में बहते दिखाया गया। कार्टन भरे नोट कब्रिस्तानों में फेंके गए। लोग शायद ये सब कष्ट भले भूल जाए, लेकिन नोटबंदी का जिन्न बार-बार बोतल से
बाहर आ ही जाता है।
इस सन्दर्भ में अवलोकन करें:--·
इस बार ये जिन्न 22 जून को गुजरात में प्रकट हुआ। दरअसल, एक आरटीआई से
मालूम हुआ कि अमित शाह और भाजपा नेताओं से संबध रखने वाले गुजरात के सहकारी
बैंकों में 3118 करोड़ रुपए की पुरानी करेंसी के नोट नोटबंदी के समय जमा
हुए, यानि नए नोट से बदले गए। अमित शाह जिस अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक के
निदेशक हैं, उसमें नोटबंदी के दौरान सिर्फ पांच दिनों में लगभग 750 करोड़
रुपए के नोट जमा किए गए, जबकि राजकोट जिला सहकारी बैंक, जिसके चेयरमैन
गुजरात सरकार के मंत्री जयेशभाई विट्ठलभाई रदाड़िया हैं, में 693 करोड़ रुपए
के पुराने नोट जमा हुए।
कांग्रेस ने इसे एक बड़ा घोटाला करार दिया। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि नोटबंदी दरअसल गलत तरीके से हासिल काले पैसे को सफ़ेद करने के लिए की गई थी। गौरतलब है कि धांधली की आशंका में 14 नवम्बर 2016 को देश के सभी जिला सहकारी बैंकों पर पुराने नोट लेने पर पाबंदी लगा दी गई थी। हैरान करने वाली बात यह थी कि गुजरात स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड में इस दौरान 1.11 करोड़ रुपए ही जमा हुए, जिससे धांधली का संदेह और गहरा हो जाता है। विमुद्रीकरण में कितना घोटाला हुआ है, यह तो सत्ता परिवर्तन होने पर ही उजागर हो पायेगा। अन्यथा अँधेरे में मारे गए तीर से कम नहीं।
बहरहाल, नाबार्ड, जहां से आरटीआई के जरिए यह आंकड़े हासिल किए गए थे, ने सफाई दी कि अहमदाबाद सहकारिता बैंक में जो पैसे जमा किए गए थे, वह बैंक की क्षमता और केवाईसी मानकों के आधार पर किए गए थे। नाबार्ड का कहना है अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक के कुल 17 लाख खातों में से केवल 1.60 लाख खातों में ही नोट बदले गए थे। नाबार्ड की ओर से यह भी कहा गया कि अमित शाह जिस बैंक के निदेशक हैं, उस बैंक से अधिक महाराष्ट्र और केरल के सहकारी बैंकों में रद्द हुए नोट जमा हुए थे। लेकिन, नाबार्ड के इस दावे को कई विशेषज्ञों ने ख़ारिज कर दिया है।
शक की गुंजाइश इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि गुजरात स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक की क्षमता इन दो बैंकों से अधिक है। इसके बावजूद इन दोनों बैंकों में जमा हुए तकरीबन 1400 करोड़ के मुकाबले गुजरात स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक में सिर्फ 1.11 करोड़ रुपए मूल्य के रद्द नोट ही जमा हो पाए। सवाल यह है कि जब सरकार जनधन खातों में जमा पैसों की जांच और कार्रवाई की बात कर रही थी, तो फिर इन खातों में जमा पैसों की जांच करवाने में क्या हर्ज है।
पैसा सुरक्षित खबर ग़ायब
जो दूसरी हैरान करने वाली बात है, वो है मीडिया द्वारा इस खबर की कवरेज। आरटीआई द्वारा हासिल जानकारियों पर आधारित न्यूज एजेंसी एएनआई की इस खबर को कई बड़े मीडिया हाउस के वेबसाइट पर प्रसारित किया गया। लेकिन कुछ घंटों बाद ही उन खबरों को वहां से हटा लिया गया। इन वेबसाइट्स में न्यूज़-18, फर्स्टपोस्ट, टाइम्स नाउ और न्यू इंडियन एक्सप्रेस जैसी वेबसाइट्स के नाम शामिल हैं। इन वेबसाइट्स ने यह नहीं बताया कि आखिर उन्होंने इस खबर को क्यों हटाया? क्या खबर गलत थी, आरटीआई से निकली जानकारी गलत थी या फिर कोई दबाव था? जाहिर है, ये स्थिति देश में मुख्यधारा की बिकाऊ मीडिया की वास्तविक तस्वीर पेश करती है।
जहां तक इन बैंकों में जमा पैसों का सवाल है तो इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी काले धन पर चोट के लिए की गई थी। ज़ाहिर है, कालाधन वापस नहीं आया। कई विशेषज्ञों के अनुसार बहुत सारे नक़ली नोट, जो बाज़ार में थे, वो भी असली नोट बन कर सिस्टम में वापस आ गए। दूसरा, जब सहकारी बैंकों को पुराना नोट वापस लेने से इसलिए रोक दिया गया था क्योंकि वहां धांधली हो सकती थी, तो फिर जब किसी सहकारी बैंक ने अपनी क्षमता से अधिक पैसा लिया तो उसकी जांच करा लेने में कौन सी बाधा आड़े आ रही है।
गौरतलब है कि नोटबंदी लागू करने का उद्देश्य आतंकवाद, नकली नोट और कालाधन पर हमला बताया गया था। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि इनमें से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि नोटबंदी के कुछ दिनों बाद ही कश्मीर में दो आतंकी मारे गए थे, जिनके पास से दो हज़ार के नए नोट बरामद हुए थे। कालाधन और नक़ली नोटों पर सरकार ने अभी तक कोई स्पष्ट आंकड़ा पेश नहीं किया है। आरबीआई द्वारा जारी आंकड़ों में कहा गया है कि 99 फीसदी करेंसी वापस आ गई है। बहरहाल, नोटबंदी एक ऐसा फैसला रहा जिसके घोषित उद्देश्य तो पूरे नहीं हुए लेकिन नोटबंदी के दो साल बाद, ऐसा लग रहा है कि नोटबंदी के कुछ अघोषित उद्देश्य भी थे, जो शायद अब जा कर जनता के सामने आ रहे हैं।
अक्सर हर चुनाव में कालेधन पर खूब शोर मचाया जाता है, लेकिन नोटबंदी में किसी भी नेता का नाम नहीं आया। विपरीत इसके आम जनमानस को ही जरुरत के रखे रुपयों को बदलवाने के लिए कठिनाई का सामना करना पड़ा। विमुद्रीकरण से न भ्रष्टाचार, आतंकवाद और न ही कालेधन पर कोई प्रभाव पड़ा, सभी यथावत रूप से चल रहे हैं। बल्कि आम जनमानस का एक-एक पैसा सरकार की निगाह में आ गया, जबकि किसी नेता के जमा धन की कोई जानकारी नहीं। .
इस सन्दर्भ में अवलोकन करें:--·
कांग्रेस ने इसे एक बड़ा घोटाला करार दिया। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि नोटबंदी दरअसल गलत तरीके से हासिल काले पैसे को सफ़ेद करने के लिए की गई थी। गौरतलब है कि धांधली की आशंका में 14 नवम्बर 2016 को देश के सभी जिला सहकारी बैंकों पर पुराने नोट लेने पर पाबंदी लगा दी गई थी। हैरान करने वाली बात यह थी कि गुजरात स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड में इस दौरान 1.11 करोड़ रुपए ही जमा हुए, जिससे धांधली का संदेह और गहरा हो जाता है। विमुद्रीकरण में कितना घोटाला हुआ है, यह तो सत्ता परिवर्तन होने पर ही उजागर हो पायेगा। अन्यथा अँधेरे में मारे गए तीर से कम नहीं।
बहरहाल, नाबार्ड, जहां से आरटीआई के जरिए यह आंकड़े हासिल किए गए थे, ने सफाई दी कि अहमदाबाद सहकारिता बैंक में जो पैसे जमा किए गए थे, वह बैंक की क्षमता और केवाईसी मानकों के आधार पर किए गए थे। नाबार्ड का कहना है अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक के कुल 17 लाख खातों में से केवल 1.60 लाख खातों में ही नोट बदले गए थे। नाबार्ड की ओर से यह भी कहा गया कि अमित शाह जिस बैंक के निदेशक हैं, उस बैंक से अधिक महाराष्ट्र और केरल के सहकारी बैंकों में रद्द हुए नोट जमा हुए थे। लेकिन, नाबार्ड के इस दावे को कई विशेषज्ञों ने ख़ारिज कर दिया है।
शक की गुंजाइश इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि गुजरात स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक की क्षमता इन दो बैंकों से अधिक है। इसके बावजूद इन दोनों बैंकों में जमा हुए तकरीबन 1400 करोड़ के मुकाबले गुजरात स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक में सिर्फ 1.11 करोड़ रुपए मूल्य के रद्द नोट ही जमा हो पाए। सवाल यह है कि जब सरकार जनधन खातों में जमा पैसों की जांच और कार्रवाई की बात कर रही थी, तो फिर इन खातों में जमा पैसों की जांच करवाने में क्या हर्ज है।
पैसा सुरक्षित खबर ग़ायब
जो दूसरी हैरान करने वाली बात है, वो है मीडिया द्वारा इस खबर की कवरेज। आरटीआई द्वारा हासिल जानकारियों पर आधारित न्यूज एजेंसी एएनआई की इस खबर को कई बड़े मीडिया हाउस के वेबसाइट पर प्रसारित किया गया। लेकिन कुछ घंटों बाद ही उन खबरों को वहां से हटा लिया गया। इन वेबसाइट्स में न्यूज़-18, फर्स्टपोस्ट, टाइम्स नाउ और न्यू इंडियन एक्सप्रेस जैसी वेबसाइट्स के नाम शामिल हैं। इन वेबसाइट्स ने यह नहीं बताया कि आखिर उन्होंने इस खबर को क्यों हटाया? क्या खबर गलत थी, आरटीआई से निकली जानकारी गलत थी या फिर कोई दबाव था? जाहिर है, ये स्थिति देश में मुख्यधारा की बिकाऊ मीडिया की वास्तविक तस्वीर पेश करती है।
जहां तक इन बैंकों में जमा पैसों का सवाल है तो इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी काले धन पर चोट के लिए की गई थी। ज़ाहिर है, कालाधन वापस नहीं आया। कई विशेषज्ञों के अनुसार बहुत सारे नक़ली नोट, जो बाज़ार में थे, वो भी असली नोट बन कर सिस्टम में वापस आ गए। दूसरा, जब सहकारी बैंकों को पुराना नोट वापस लेने से इसलिए रोक दिया गया था क्योंकि वहां धांधली हो सकती थी, तो फिर जब किसी सहकारी बैंक ने अपनी क्षमता से अधिक पैसा लिया तो उसकी जांच करा लेने में कौन सी बाधा आड़े आ रही है।
गौरतलब है कि नोटबंदी लागू करने का उद्देश्य आतंकवाद, नकली नोट और कालाधन पर हमला बताया गया था। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि इनमें से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि नोटबंदी के कुछ दिनों बाद ही कश्मीर में दो आतंकी मारे गए थे, जिनके पास से दो हज़ार के नए नोट बरामद हुए थे। कालाधन और नक़ली नोटों पर सरकार ने अभी तक कोई स्पष्ट आंकड़ा पेश नहीं किया है। आरबीआई द्वारा जारी आंकड़ों में कहा गया है कि 99 फीसदी करेंसी वापस आ गई है। बहरहाल, नोटबंदी एक ऐसा फैसला रहा जिसके घोषित उद्देश्य तो पूरे नहीं हुए लेकिन नोटबंदी के दो साल बाद, ऐसा लग रहा है कि नोटबंदी के कुछ अघोषित उद्देश्य भी थे, जो शायद अब जा कर जनता के सामने आ रहे हैं।
अक्सर हर चुनाव में कालेधन पर खूब शोर मचाया जाता है, लेकिन नोटबंदी में किसी भी नेता का नाम नहीं आया। विपरीत इसके आम जनमानस को ही जरुरत के रखे रुपयों को बदलवाने के लिए कठिनाई का सामना करना पड़ा। विमुद्रीकरण से न भ्रष्टाचार, आतंकवाद और न ही कालेधन पर कोई प्रभाव पड़ा, सभी यथावत रूप से चल रहे हैं। बल्कि आम जनमानस का एक-एक पैसा सरकार की निगाह में आ गया, जबकि किसी नेता के जमा धन की कोई जानकारी नहीं। .
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