कांग्रेस का पुराना पोस्टर |
भारत की सबसे पुरानी सियासी पार्टी कांग्रेस का ज़िक्र आते ही 'हाथ का पंजा' ज़हन में अपने आप उभरने लगता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि 'पंजा' कांग्रेस का हमेशा से चुनाव निशान नहीं था। कांग्रेस ने सवा सौ साल के इतिहास में चुनाव चिन्ह को लेकर कई प्रयोग किए।
एनीबेसेंट की थियोसोफिकल सोसाइटी के सक्रिय सदस्यों एलन आक्टोवियन ह्यूम और दूसरे लोगों द्वारा 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1931 में तिरंगे को अपने पहले झण्डे के रुप में मान्यता प्रदान की थी। देश आज़ाद हुआ तो तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज बन गया। इसके बाद काफी लम्बे वक्त तक दो बैलों की जोड़ी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह रहा। साल 1969 में पार्टी विभाजन के बाद चुनाव आयोग ने इस चिन्ह को ज़ब्त कर लिया। कामराज के नेतृत्व वाली पुरानी कांग्रेस को तिरंगे में चरखा जबकि नयी कांग्रेस को गाय और बछडे का चुनाव चिन्ह मिला।
साल 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद कांगेस की बदहाली शुरू हुई। इसी दौर में चुनाव आयोग ने गाय बछड़े के चिन्ह को भी जब्त कर लिया। रायबरेली में करारी हार के बाद सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के हालात देखकर पार्टी प्रमुख इन्दिरा गांधी काफी परेशान हो गयीं। कहा जाता है कि परेशानी की हालत में श्रीमती गांधी तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती का आशीर्वाद लेने पहुंची। इंदिरा गांधी की बात सुनने के बाद पहले तो शंकराचार्य मौन हो गए लेकिन कुछ देर बाद उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया तथा 'हाथ का पंजा' पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा। उस समय आंध्र प्रदेश समेत चार राज्यों का चुनाव होने वाले थे। श्रीमती गांधी ने उसी वक्त कांग्रेस आई की स्थापना की और आयोग को बताया कि अब पार्टी का चुनाव निशान पंजा होगा। उन चुनावों में कांग्रेस को बड़ी जीत हासिल हुई, ज्योतिष पर यकीन रखने वाले लोग मानते हैं कि ये जीत नए चुनाव चिन्ह 'पंजे' का कमाल थी। बहरहाल, उन चुनाव से कांग्रेस पुनर्जीवित हो गयी।
कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास
कांग्रेस में प्रतिक्रियावादियों की पराजय
27 मई 1964 को नेहरू जी का देहान्त हुआ। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्री कामराज द्वारा सर्वसम्मति प्राप्त किये जाने पर नेहरूजी के बाद श्री लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। इस युद्ध में सभी लोगो ने धर्म सम्प्रदाय और आस्थाओं की सीमा से ऊपर उठकर मातृभूमि के लिये बलिदान देने से एक दूसरे से आगे बढ़ने की कोषिष की और साबित कर दिखाया कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की नीति में कितनी शक्ति है।
जनवरी 1966 में ताशकन्द में श्री लालबहादुर शास्त्री का देहान्त हो गया। इसके बाद कांग्रेस संसदीय पार्टी में सीधे मुकाबले में श्री मोरारजी देसाई को हराकर श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी। श्री देसाई की हार कांग्रेस के अंदर उन लोगो की हार थी जो कांग्रेस की समाजवादी नीतियों के पक्ष मे वोट देते हुए भी उन नीतियों पर विश्वास नही रखते थे।
1967 के चुनाव और दस सूत्री कार्यक्रम
कांग्रेस की नीतियों का ठीक से कार्यान्वयन न होने और कांग्रेस संगठन के अंदर गतिहीनता के कारण 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस के कई उम्मीदवार हार गये और कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारे नही बन पाई। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक ने महसूस किया कि कांग्रेस की क्षति का मुख्य कारण समाजवाद के लक्ष्य की ओर काफी तेजी के साथ बढ़ना है। कमेटी ने एक 10 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया जिसमें बैंको पर सामाजिक नियंत्रण, आम बीमा व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण भूतपूर्व नरेशो के विशेषाधिकार और पेंशनो (प्रिवीपर्स) की समाप्ती निर्धारित समय में समाज के सभी वर्गो की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने आदि के लिये कहा गया।
कांग्रेस की समाजवादी नीति के आलोचको को इंदिरा जी का जवाब
प्रतिक्रियावाद और यथास्थिति के समर्थको जिन्हंोने स्वयं कांग्रेस में ही जडे जमा रखी थी, समाजवाद के रास्ते अवरोध खडे कर दिये जबकि उत्तरोत्तर यह स्पष्ट होता गया कि यदि कांग्रेस समाजवाद हासिल करना चाहती है तो उसे क्रांतिकारी परिवर्तन करने होगे। अतः समाजवाद के आदर्शो और नीतियों के कार्यान्वयन की दिशा में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में अनेक क्रांतिकारी उपाय किये गये। 1969 में कांग्रेस के फरीदाबाद अधिवेशन में एक अजीब बात देखने में आई। कांग्रेस अध्यक्ष श्री निजलिंगप्पा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में उद्योगों के सार्वजनिक क्षेत्र की आलोचना की जबकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस अधिवेशन में समाजवादी नीतियों का जोरदार समर्थन किया।
बंगलौर अधिवेशन: प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को हटाने की साजिश
प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की सदा यह कोशिश रही है कि जो नीतिया स्वीकार की जा चुकी है उन पर अमल किया जा। 1969 में बंगलौर अधिवेशन के समय उन्होनं कार्य समिति के समक्ष एक नोट पेश किया जो ‘‘स्ट्रे थाट’’ (छुटपुट विचार) के नाम से प्रसिद्ध है। इसे कांग्रेस की कार्य समिति और अखिल भारतीय कांग्रेस कमटी ने मंजूर कर लिया। इंदिरा जी का यह नोट देश की आर्थिक स्थिति की सही समीक्षा और कांग्रेस द्वारा किये गये पिछले वायदो के क्रियान्वयन के लिए जोरदार आह्वान था।
कांग्रेस के अंदर प्रतिक्रियावादी विचार वाले लोगो ने इंदिरा जी के छुटपुट विचारो को स्वीकार करने के बावजूद उन्होंने लागू करने में सहयोग नही दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमटी द्वारा स्व्ीकृत 10 सूत्री कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने बैकों के राष्ट्रीयकरण का ऐलान किया तो श्री मोरारजी देसाई ने जो उस वक्त वित्त मंत्री थे, विरोध में त्यागपत्र दे दिया।
इसी दौरान राष्ट्रपति डाॅ जाकिर हुसैन की मृत्यु हुई और प्रतिक्रियावादियों ने इसका लाभ उठाकर घरेलू और विदेश नीतियों को बदलने का अच्छा मौका समझा। कांग्रेस के अन्दर थोडे से लोगो के एक ग्रुप ने जो सिन्डीकेट के नाम से प्रसिद्ध था, अपनी मर्जी के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने की कोशिश की।
सिन्डीकेट ग्रुप और श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी के मतभेद के पीछे यथास्थिति बनाये रखने और परिवर्तन तथा निहित स्वार्थो और जनता की आकांक्षाओं के बीच टक्कर प्रमुख थी। प्रतिक्रियावादी विरोधी पार्टियों और कांग्रेस के सिन्डीकेट ग्रुप की अंदरूनी साजिश थी कि श्री संजीव रेडडी के विरूद्ध श्री वी.वी. गिरि राष्ट्रपति पद के लिये उम्मीदवार के तौर पर खडे हुए। श्री गिरि की विजय कांग्रेस के अंदर प्रगतिशील नीतियों का विरोध करने वाली शक्तियों की करारी हार थी।
1969 कांग्रेस का विभाजन
कांग्रेस के अन्दर प्रतिक्रियावादी लोग अब खुलकर सामने आये। श्री फखरूद्दीन अली अहमद और श्री सुब्रमंयम को हटाकर कांग्रेस की कार्य समिति में बहुमत प्राप्त करने की कोशिश की गई। यही नही वे एक कदम और आगे निकल गये और उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी को ही कांग्रेस से निकाल दिया।
देश के अधिकांश कांग्रेसजनो ने कांग्रेस के प्रतिक्रियावादी नेताओं के इन लोकतंत्र विरोधी कार्यो को सख्त नापसन्द किया और श्रीमती गांधी का समर्थन किया। भारी संख्या में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने समिति की बैठक की मांग की। लेकिन श्री निजलिंगप्पा नही माने, जिसके फलस्वरूप नवम्बर 1969 में समिति ने विधिवत बैठक में श्री सुब्रमंयम को कांग्रेस अध्यक्ष चुना। उसके फौरन बाद दिसम्बर 1969 में श्री जगजीवन राम की अध्यक्षता में बम्बई अधिवेशन हुआ जिसमें एक ठोस कार्यक्रम तैयार कर नयी गतिशीलता का परिचय दिया। तात्कालिक कार्य था अािर्थक विषमताओं को कम करना, उत्पादन और वितरण के साधनो पर सामाजिक नियंत्रण बढाना और साम्प्रायिक तथा तत्वों का विरोध करना था।
जनता द्वारा कांग्रेस में पूरा विश्वास व्यक्त: 1971 के मध्यावधि चुनाव
प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को संसद के दोनो सदनो में कांग्रेस का आवश्यक बहुमत न रहने के कारण समाजवादी नीतियो के कार्यान्वयन में रूकावटे आने लगी। अतः उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने यह फैसला किया कि इस संबंध में जनता की राय मालूम की जाय। 1971 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि लोगो का कांग्रेस के सिद्धांतो और कार्यक्रमों में दृढ़ विश्वास है। कांग्रेस को लोकसभा में दो तिहाई से भी अधिक स्थान प्राप्त हुए। उसके तुरंत बाद भूतपूर्व नरेशों के विशेषाधिकार और प्रिवीपर्स समाप्त करने के लिये जो अवरोध प्रगतिशील सामाजिक आर्थिक उपायो के लिये कानून बनाने में बाधक थे, उन्हें हटाने के लिये शीघ्र कदम उठाये गये।
बांगला देश को आजादी: श्रीमती गांधी का शानदार नेतृत्व
दिसम्बर 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, लेकिन भारतीय सेनाओं से उसे करारी हार खानी पडी। बंगलादेश गणराज्य का उदय हुआ जो भारत की शांति, लोकतंत्र में आस्था
श्रीमती इंदिरा गांधी के देश को विवेकपूर्ण नेतृत्व, विजय की घडी में उनकी विनम्रता और सिद्धांतो पर उनकी दृढ़ता से सारी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढी़।
लोकतंत्र को नष्ट करने के लिये प्रतिक्रियावादियों के असंवैधानिक तरीके
लोकसभा के 1971 के चुनावों, राज्य विधान सभाओं के 1971 उसके बाद उत्तर प्रदेश और उडीसा की विधान सभा के 1974 के चुनावों में बार-बार मुंह की खाने पर निराश हो जाने से कुछ सामन्तवादी और निहित स्वार्थो ने आशा ही छोड दी कि वे वोटों और लोकतंत्रीय तरीको से इतिहास को लौटा सकते है।
सन् 1974 की शुरूआत गुजरात में आंदोलन से हुई। नव निर्माण संघर्ष समितियां बनाई गई जिससे अहिंसक तरीको द्वारा लोकतंत्र के काम में रूकावट डाली जाय और शांति भंग की जाये। निर्वाचित विधायको का घेराव किया गया उन्हें डराया धमकाया गया और उनकी बेइज्जती की गई जिससे मजबूर होकर वे इस्तीफा दे दे। यहां तक कि अन्त में श्री मोरारजी देसाई ने विधान सभा भंग कराने के लिये आमरण अनशन रखा। गुजरात आंदोलन में कई व्यक्तियों की जाने गई और करोड़ो रूपये की सरकारी व निजी सम्पत्ति का नुकसान हुआ। हिंसात्मक आंदोलन की प्रक्रिया बिहार से शुरू हुई। विपक्षी दलो ने केन्द्र सरकार को ठप्प करने के लिये देश भर में बंद, घेराव, आंदोलन तोडफोड और औद्योगिक कर्मचारियों, पुलिस और रक्षा सेनाओं को भडकाने का सुनियोजित कार्यक्रम तैयार किया। यह कार्यक्रम 29 जून 1975 को शुरू किया जाना था। इस प्रकार लोकतंत्रीय तरीके को छोडकर अंसवैधानिक तरीको का रास्ता अपनाया गया।
आपात स्थिति की घोषणा
इन परिस्थितियों में भारत के राष्ट्रपति को मजबूर होकर 26 जून को आपात स्थिति की घोषणा करनी पडी। इसी दिन राष्ट्र के नाम अपने प्रसारण में प्रधानमंत्री ने देश में आपात स्थिति घोषित करने के कारणों पर प्रकाश डालते हुये कहा कि ‘‘ लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का काम ठप्प करने की कोशिश की गई है। कानूनी तरीके से निर्वाचित सरकारो को काम नही करने दिया गया है और कुछ मामलो में सदस्यों को इस्तीफा देने के लिये मजबूर करने के लिये बल प्रयोग किया गया है जिससे गैर कानूनी तरीके से निर्वाचित विधान सभाये भंग कर दी जाये।’’
आपात स्थिति की घोषणा के साथ ही सरकार ने उन लोगो के खिलाफ, कार्यवाही की जो देश में अराजकता फैलाना चाहते थे। कांग्रेस संगठन ने राजनीतिक शिक्षा देने का व्यापक अभियान चलाया। अनुशासन तथा कर्तव्य परायण की भावना राष्ट्रीय जन जीवन की एक अंग बन गई। हडताल, तालाबंदी, बंद और घेराव एकदम बन्द हो गये, कानून और व्यवस्था की स्थिति बहुत सुधर गई, अपराध कम हो गये और कारखानों में उत्पादन बढ़ गया। यहां तक की संत विनोबा भावे ने इस बीच के युग को ‘‘अनुशासन पर्व’’ की संज्ञा दी।
देश में शांति व व्यवस्था कायम कर और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के बाद प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने आपात स्थिति हटा दी और लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुसार चुनाव करा दिये।
1977 के चुनाव में कांग्रेस की हार और कांग्रेस मे विभाजन
वर्ष 1977 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कई प्रतिक्रियावादी दलों का गठबंधन ‘‘जनता पार्टी’’ के रूप में सामने आया। जनता पार्टी को लोकसभा में बहुमत मिला और उसने सत्ता सम्भाली कांग्रेस लोकतांत्रित प्रणाली के अनुरूप विरोधी प़क्ष की भूमिका निभाने लगी।
कांग्रेस संगठन में 1977 के चुनाव मे हार के बाद आंतरिक तनाव बेहद बढ गया। जब हालात ऐसी हो गयी कि कांग्रेस अब अपनी पहचान और प्रभावी नेतृत्व खो देगी तो कांग्रेस महासमिति के बहुमत सदस्यों का पहली और दूसरी जनवरी 1978 कों नई दिल्ली में एक सम्मेलन हुआ और उसमें श्रीमती इंदिरा गांधी को सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। इस कदम का समर्थन जनता ने भी फरवरी 1978 में आन्ध्रप्रदेष और कर्नाटक की विधान सभाओं के लिये हुये चुनावो तथा विभिन्न उप चुनावो में किया। उन्होने यहां तक फैसला दिया कि केवल कांग्रेस (ई) ही देष को धर्मनिरपेक्षता , समाजवाद और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की सही दिषा में ले जा सकती है।
कुछ नेताओं ने इंडियन नेषनल कांग्रेस के नाम से जिसे अब कांग्रेस (एस) कहा जाने लगा, एक टूटी फूटी पार्टी के रूप में अपने को बनाये रखा, हालाकि उन्हें बार बार पराजय का मुंह देखना पडा उनकी एक मात्र प्रेरणा सत्ता की धुन थी और अन्त में श्री चरणसिंह के मंत्रिमण्डल में उन्हें पदांे के पुरूस्कार मिले किन्तु उनकी पार्टी जनता की दृष्टि में पूरी तरह असंगत सिद्ध हो चुकी है और राजनीतिक दुनिया से तेजी से लुप्त हो रही है।
जैसा कि सर्वविदित है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ई) जिसका यह नाम चुनाव आयोग द्वारा उसके पहचान चिन्ह के रूप में दिया गया, श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में मार्च 1977 में ही एक प्रभावषाली लोकतांत्रिक दल के रूप में काम करती रही। उसने अनेक ऐतिहासिक लोकप्रिय संघर्षो का नेतृत्व किया।
बिहार में बिछली कांड हुआ, जिसमें हरिजनो को जिंदा जला दिया गया। बिछली जैसे सुदूर बिहार के गांव में इंदिरा गांधी का दौरा तथा हरिजनो से अपनी सहानुभूति दर्षाना उनकी गरीबो हरिजनो और शोषित मानवता के प्रति सहानुभूति ने इंदिराजी और कांग्रेस की लोकप्रियता को बढाया जो राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस के लिये एक मील का पत्थर साबित हुई। वर्ष 1980 के चुनावो में इसे सिद्ध किया जब इंदिरा गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 544 लोकसभाई सीटों मे से 351 स्थान प्राप्त कर भारी बहुमत से चुनाव जीता।
इस चुनाव में अपार सफलता मिलने पर कांग्रेस पर बैलेट पेपर पर प्रयोग होने वाली स्याही और बैलेट पेपर के दुरूपयोग होने का आरोप भी लगा। आरोप था कि दूसरी पार्टी पर लगाई मोहर कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर कैसे आई?
इस चुनाव में अपार सफलता मिलने पर कांग्रेस पर बैलेट पेपर पर प्रयोग होने वाली स्याही और बैलेट पेपर के दुरूपयोग होने का आरोप भी लगा। आरोप था कि दूसरी पार्टी पर लगाई मोहर कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर कैसे आई?
इंदिरा जी ने वर्ष 1980 में जब पुनः सत्ता संभाली तो उन्हें विरासत में जनता शासन के तीन वर्षो में जीर्ण शीर्ण की गई व्यवस्था मिली। जनता पार्टी के अन्ध विष्वासी तथा यथा स्थिवादी नेताओं ने 70 के दषक में कांग्रेस सरकार द्वारा चलाये गये तमाम प्रगतिषील कार्यक्रमो को बंद कर दिया। उदाहरण के तौर पर 1977 के पहले जिन हरिजनो को भू आवंटन किया गया था उसे वापस लेकर पुनः उनके मालिको को सौंप दिया गया। यह गांवो में बडे किसानो का वह प्रभावषाली वर्ग था जिसने 1977 में कांग्रेस को हराने में पूरी शक्ति लगाई थी। इसी प्रकार वे सभी कार्यक्रम जो चाहे प्रारंभ से ही कांग्रेस ने जिस धर्मनिरपेक्षता के लिये कार्य किया और अपने आपको समर्पित किया उसे भी जनता शासन ने नष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी।
इंदिराजी ने सत्ता सम्भालने के पष्चात जो सबसे पहला कार्य किया वह था जनता शासन द्वारा तीन वर्षो में जो सामाजिक तानेबाने पर प्रहार किया गया था उसे पुनः जोडा और उसमें नई जान फूंकी। 20 सूत्रीय कार्यक्रम में शहरो और गांवो में बसने वाले गरीब और कमजोर तबके के लोगो के आर्थिक विकास पर विषेष बल दिया गया था। साथ ही साथ ऐसी नीतियों को समाप्त किया जो सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से दो समुदायों में वैमनस्य तथा मनमुटाव पैदा करती हो। 1980 की बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस ने पुनः धर्मनिरपेक्षता का प्रतिपादन किया जो जन्म से ही इसे घुटटी
अस्सी के दषक में इंदिरा जी के शक्तिषाली हिमालयी व्यक्तित्व का सर्वोत्तम उदाहरण संभवतः विष्व की तीसरी दुनिया के देषो को उनके द्वारा दिया गया नेतृत्व है। यह विषिष्ट गुण उन्हें अपने महान पिता से विरासत में मिला था जो इस विष्वास पर आधारित था कि एषिया, अफ्रिका तथा लेटिन अमेरिका के नव स्वतंत्र राष्ट्रो की अपनी राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टि तथा रूचि है जो उन्हें जहां एक करती है वही वह इन्हें महाषक्तियों से अलग करती है। गुटनिरपेक्षता का ऐतिहासिक आधार चाहे जो रहा हो इंदिरा जी ने बांगला देष की मुक्ति के लिये हो रहे संघर्ष के समय घटनाक्रमो में भी उन्होंने गुटनिरपेक्षता में अपना पूर्ण विष्वास व्यक्त किया था। बंगलादेश की मुक्ति के बाद के दषक में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति मंे घटने वाली घटनाओं में इंदिरा जी के इस विष्वास को और शक्ति दी की युद्ध एवं शांति जैसे विषाल मुददे 20 वी शताब्दी में केवल गुट निरपेक्ष मंच से ही सुलझायें जा सकते है। विष्व समुदाय मे तेजी से फैल रही आर्थिक अराजकता एक ओर बडी समस्या पैदा कर रही थी जो शायद तीसरी दुनिया के देषो के आर्थिक प्रस्ताव का इंतजार कर रही थी। इंदिराजी जब तक प्रधानमंत्री रही तब तक वे बराबर विकसित एवं विकासषील देषो के बीच बराबरी के आर्थिक संबंधो पर जोर देती रही। संभवतः गुट निरपेक्ष देषो के 1983 के सम्मेलन की अध्यक्षता इंदिराजी के जीवन के कुछ सुखद क्षणांे मे से एक था। एषिया, अफ्रिका तथा लेटिन अमेरिकी देषों के नेताओं के सम्मुख बोलते हुये इंदिराजी ने कहा - गुटनिरपेक्ष आंदोलन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संघर्षो के पुनः निर्माण के लिये सषक्त ढंग से खडा है। हम हर राष्ट के आर्थिक संसाधनो तथा नीतियों के साथ है अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के संचालन के लिये हम बराबरी की आवाज चाहते है। हम न्याय और समानता पर आधारित नवीन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधो के लिये अपनी प्रतिबद्धता को पुनः दोहराते है।
हमारी योजनायें हमारे लोगो की खुषहाली, विष्व शांति तथा निःषस्त्रीकरण की विष्वसनीय शांति प्रदान कर सकती है। नााभकीय अस्त्रों वाले देषो के बीच पारस्परिक बातचीत में बहुत ही सीमित प्रगति हुई है। हम अनाभिकीय देष है और चाहते है कि नाभकीय ऊर्जा का प्रयोग केवल शांति के लिये हो। किन्तु हमें भी जीवित रहने और कहने का अधिकार है। मानवता के नाम पर तथा हम सभी लोगो की ओर से नाभकीय अस्त्रों से लैस सभी देषो से कहना चाहता हूॅ कि वे नाभकीय अस्त्रों के किसी भी परिस्थिति में प्रयोग से तथा धमकाने में बाज आये सभी नाभकीय अस्त्रों का परीक्षण उत्पादन तथा स्थापना पूर्णतः बन्द करे तथा किसी नतीजे पर पहुंचने की इच्छा शक्ति के साथ निःषस्त्रीकरण पर बातचीत प्रारंभ करे।
यदि दुर्भाग्य ने समय के इस मोड पर इंदिरा जी को हमसे न छीन लिया होता तो निष्चित रूप से उन्हांने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सेना और आर्थिक मामलो में मसविदों के माध्यम से पूरी मानवता की बहुत बडी सेवा की होती। परन्तु भारत मे ंराजनैति परिस्थितियों के दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तन के कारण ऐसे व्यक्तित्व को जिसकी उपलब्धियां महान थी, जिसके अनुभव इतनी विभिन्नता लिए हुये थे कि हमसे छीन लिया। राजनीतिक परिस्थितियों के इस दुर्भाग्यपूर्ण मोड ने कांग्रेस और सिख समुदाय के संबंधो को प्रभावित किया और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को जो भारतीय एकता का आधार है। प्रारंभ से ही विभिन्न वर्गो और समुदायो ने अपनी आषाओं और आंकाक्षओं की पूर्ति हेतु कांग्रेस की नीतियो को अपना बिना शर्त समर्थन दिया। जिन्होने ऐसा किया उनमें सिख समुदाय भी था। परिश्रमी और उत्साही कृषको ने अपने परिश्रम से 1947 के पूर्व ही पंजाब को इस उपमहादृीप का अनन्त भंडार बना दिया था। पंजाब के लोगो ने आजादी की लडाई में बहुत बडा योगदान दिया तथा 1920 से लगातार दूसरे समुदायो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साम्रज्यवादी ताकतो के विरूद्ध लडाई लडी।
अकाली दल के माध्यम से इंदिरा सरकार के सामने सिख समुदाय की कुछ मांगे रखी। इनमें कुछ मांगे आर्थिक थी कुछ भाषायी तथा कुछ धार्मिक आजादी तथा सांस्कृतिक स्वायत्ता से संबंधित थी इंदिरा जी सिख समुदाय की बडी प्रषंसक थी। वे उनकी वास्तविक नेताओं का सम्मान भी करती थी अतः उनके नेताओं से उन्होंने बातचीत प्रारंभ की यह सुनिष्चित करने हेतु कि यदि उनकी समस्यायें वास्तविक है तो उनका निदान हो। समुदाय में कुछ ऐसे लोगो के छोटे समूह थे जो इन सही गलत मांगो को आधार बनाकर राष्ट्रीय अखंडता पर प्रहार करना चाहते थे। उन्होेंने इसे पूरा जातीय रंग दिया। यद्यपि उन्हें बहुमत का समर्थन नही था फिर भी उन्होंने भय और हिंसा का प्रश्रय लेकर पंजाब में एक भयानक स्थिति उत्पन्न कर दी। इस स्थिति का सबसे खतरनाक पहलू था पंजाब में पूजा स्थलो को भारतीय एकता पर प्रहार करने वाले केन्द्रो मे परिवर्तन करना।
दो वर्षो तक इंदिरा जी ने उनके नेताओं से धैर्य पूर्वक बार-बार बात की। परंतु दो वर्षो बाद इंदिराजी ने सोचा कि एक छोटा सा सिख नेतृत्व पूरे देश की एकता और अखंडता को चुनौती देने पर आमाद है जो राष्ट्र के लिये खतरा हो सकता है। यही बात पूरे देश की जनता भी सोच रही थी। 3 जून 1984 को इंदिरा जी ने सेना को आदेश दिया कि वे सिखो के पवित्र धार्मिक स्थलो की उग्रवादी और अलगावादी ताकतो के शिकंजे से कम से कम बल प्रयोग करते हुये मुक्त करे, बहुत कम समय से न्यूनतम बल का प्रयोग करते हुये यह कार्य सम्पन्न हुआ।
आंतकवादी और अलगाववादियों ने जिन्होंने पूरे पंजाब को दो वर्षो तक बंधक बनाये रखा इस कार्यवाही को सिख धर्म पर आक्रमण की संज्ञा दे दी। इंदिरा जी की धर्म निरपेक्षता पर आस्था तथा सिख समुदाय के प्रति उनके आदर के विषय में पूरा हिन्दुस्तान जानता था अतः भ्रमित सिखो के इस प्रचार पर किसी ने विश्वास नही किया। इसके बावजूद सिख आंतकवादी अपनी भयाक्रांत करने की नीति में सफल हुये और 31 अक्टूॅबर 1984 को इंदिराजी के सुरक्षा दस्तें के दो सदस्यों ने जो धार्मिक भावना के किटाणुओं से ग्रस्त कर दिये गये थे इंदिराजी का बेहरमी से कत्ल कर दिया।
दुनिया के इतिहास में संभवतः किसी भी नारी ने 15 वर्षो के समय में किसी राष्ट्र के भाग्य का निर्माण इतने निर्णायक ढंग से नही किया होगा और सारी दुनिया में इतना सम्मान नही पाया होगा। इसलिये उनकी हत्या ने भारत के लोगो को विषेषकर गरीबो और मजदूरो को कही भीतर तक छलनी कर दिया। गरीब और मजदूर उन्हें अपना रक्षक, अपना सर्वस्व मानते थे। फिर भी ऐसे नाजुक मौके पर कांग्रेस ने सिद्ध कर दिया कि वह वास्तव में भारत के महान लोगो के विष्वास के काबिल है। भारतीय इतिहास के छोटे किन्तु अत्यंत निर्णायक अन्तराल में पूरी शीघ्रता और विष्वास के साथ कांग्रेस ने राजीव गांधी जैसे कर्मठ युवा को नेतृत्व सौपा। इस युवा नेता ने अपनी विलक्षण योग्यता और नेतृत्व क्षमता का परिचय पहले ही दे दिया था और भविष्य के प्रति भारी आषाएं जगा दी थी। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देष वासियो से कहा कि भारतीय राजनैतिक मंच से इंदिराजी के हटा दिये जाने से सम्पूर्ण राष्ट्र पर पवित्र और बहुत बडी जिम्मेदारी आ गई है। मैने और आपने बहुत कुछ खो दिया जिसकी पूर्ति असंभव है। राजीव गांधी ने कहा मुझे और आपको साथ साथ काम करना है जिससे कि इंदिराजी जो काम अधूरा छोड गई है उसे पूरा किया जा सके। (एजेंसीज इनपुट सहित)
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