आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
बैठा कुछ पुरानी क्लिपिंग्स में यादों को टटोल रहा था कि पाञ्चजन्य साप्ताहिक की क्लिपिंग हाथ लग गयी, सोंचा कहीं ख़राब न हो जाए, ब्लॉग पर डाल दिया जाए। ताकि मूर्खों के समूह संघ की मूर्खता जगजाहिर कर संघ को देशद्रोही कहने वालों पर तमाचा पड़ सके। सम्भव हो, कि आम स्वयंसेवक से लेकर संघचालक जी को नागवार गुजरे। गुजरनी भी चाहिए। वैसे सबकी अपनी अलग सोंच हैं, मेरी अलग।
जिसका जब मन चाहा बोल दिया "संघ देशद्रोही है", "ब्रिटिशर्स से मिले हुए थे", "गोडसे संघ से जुड़ा हुआ था" आदि आदि लांछन लगाते रहते हैं। संघ बस एक विज्ञप्ति दे संतोष कर बैठ जाते हैं। कभी संघ को कलंकित करने वालों के अब से पूर्व यानि मोदी सरकार बनने पर, ("केवल एक अपवाद को छोड़कर जब आजतक चैनल द्वारा विवादित बयान देने पर झंडेवालान स्थित वीडियोकोन टावर पर आजतक के विरुद्ध जबरदस्त प्रदर्शन किया था। तब समस्त मीडिया ने "संघ का मीडिया पर हमला" खूब उछाल कर संघ को बदनाम करने का षड्यंत्र किया था।") खुलकर बोलना प्रारम्भ किया है।
संघ ने किसी एनजीओ से कहीं अधिक जनहित में कार्य किए हैं, जिन पर ग्रंथ रचित किये जा सकते हैं। एनजीओ तो किसी काम को करने से पूर्व वित्तीय सहायता करने को तलाशते हैं, लेकिन संघ किसी भी विपत्ति के समय देरी किये बिना किसी भेदभाव के अपने स्वयंसेवकों को जनता एवं सरकार की सहायतार्थ घटना स्थल पर जाने का आदेश दे देता है। जब निक्कर धारी संघी अपनी सेवाएँ अर्पित कर रहा होता है, किसी को कष्ट नहीं होता, हर कोई निक्करधारियों से हाथ मिलाता नज़र आता है। परन्तु राजनीती आते ही संघ राष्ट्र-विरोधी और न जाने कितने नामों से अलंकृत करते रहते हैं। संघ विरोधी संघ की चाहे जितनी आलोचना कर लें, लेकिन कभी जेएनयू की तरह देश-विरोधी नारे लगाते नहीं देखा होगा। अगर देखा हो, बताने का कष्ट करें। मेरे ज्ञान में वृद्धि होगी।
बिना भेदभाव के जनता सेवा करते निक्करधारी |
साल 1925 में दशहरे के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. सांप्रदायिक हिंदूवादी, फ़ासीवादी और इसी तरह के अन्य शब्दों से पुकारे जाने वाले संगठन के तौर पर आलोचना सहते और सुनते हुए भी संघ परिवार को कई दशक हो चुके हैं.
सुनामी में पीड़ितों की सहायता करते निक्करधारी |
दुनिया में शायद ही किसी संगठन की इतनी आलोचना की गई होगी जितनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की की गई होगी. वह भी बिना किसी आधार के. संघ के ख़िलाफ़ लगा हर आरोप आख़िर में पूरी तरह कपोल-कल्पना और झूठ साबित हुआ है. ऐसे कई मौके आये हैं जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बिना किसी भेदभाव के अपने मूल कर्तव्यों का पालन करते हुए लोगों की सहायता की है चाहे वह भूकंप का समय हो या फिर भयंकर बाढ़ का.
जब साल 1962 में देश पर चीन का आक्रमण हुआ था. तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था.
संघ के स्वयंसेवकों ने अक्टूबर साल 1947 से ही कश्मीर सीमा पर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर बगैर किसी प्रशिक्षण के लगातार नज़र रखी. उसी समय, जब पाकिस्तानी सेना की टुकड़ियों ने कश्मीर की सीमा लांघने की कोशिश की, तो सैनिकों के साथ कई स्वयंसेवकों ने भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ाई में प्राण दिए थे. विभाजन के दंगे भड़कने पर, जब नेहरू सरकार पूरी तरह हैरान-परेशान थी, संघ ने पाकिस्तान से जान बचाकर आए शरणार्थियों के लिए 3000 से ज़्यादा राहत शिविर लगाए थे.
सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक जिस उत्साह से सीमा पर पहुंचे, उसे पूरे देश ने देखा और सराहा. स्वयंसेवकों ने सरकारी कार्यों में और विशेष रूप से जवानों की मदद में पूरी ताकत लगा दी - सैनिक आवाजाही मार्गों की चौकसी, प्रशासन की मदद, रसद और आपूर्ति में मदद और यहां तक कि शहीदों के परिवारों की भी चिंता. जवाहर लाल नेहरू को साल 1963 में 26 जनवरी की परेड में संघ को शामिल होने का निमंत्रण देना पड़ा.
परेड करने वालों को आज भी महीनों तैयारी करनी होती है लेकिन मात्र दो दिन पहले मिले निमंत्रण पर 3500 स्वयंसेवक गणवेश में उपस्थित हो गए. निमंत्रण दिए जाने की आलोचना होने पर नेहरू ने कहा- "यह दर्शाने के लिए कि केवल लाठी के बल पर भी सफलतापूर्वक बम चीनी सशस्त्र बलों से लड़ा सकता है और विशेष रूप से साल 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए आरएसएस को आकस्मिक आमंत्रित किया गया."
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह विलय का फ़ैसला नहीं कर पा रहे थे और उधर कबाइलियों के भेष में पाकिस्तानी सेना सीमा में घुसती जा रही थी, तब नेहरू सरकार तो - हम क्या करें वाली मुद्रा में - मुंह बिचकाए बैठी थी. सरदार पटेल ने गुरु गोलवलकर से मदद मांगी.
गुरुजी श्रीनगर पहुंचे, महाराजा से मिले. इसके बाद महाराजा ने कश्मीर के भारत में विलय पत्र का प्रस्ताव दिल्ली भेज दिया.
गुरुजी श्रीनगर पहुंचे, महाराजा से मिले. इसके बाद महाराजा ने कश्मीर के भारत में विलय पत्र का प्रस्ताव दिल्ली भेज दिया.
पाकिस्तान से युद्ध के समय लालबहादुर शास्त्री को भी संघ याद आया था. शास्त्री जी ने क़ानून-व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद देने और दिल्ली का यातायात नियंत्रण अपने हाथ में लेने का आग्रह किया, ताकि इन कार्यों से मुक्त किए गए पुलिसकर्मियों को सेना की मदद में लगाया जा सके. घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान करने वाले भी संघ के स्वयंसेवक थे. युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ़ हटाने का काम संघ के स्वयंसेवकों ने किया था.
दादरा, नगर हवेली और गोवा के भारत विलय में संघ की निर्णायक भूमिका थी. 21 जुलाई साल 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई. संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त साल 1954 की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया और पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया.
संघ के स्वयंसेवक साल 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे. गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से नेहरू के इनकार करने पर जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया, जिसका परिणाम जगन्नाथ राव जोशी सहित संघ के कार्यकर्ताओं को दस वर्ष की सजा सुनाए जाने में निकला. हालत बिगड़ने पर अंततः भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और 1961 में गोवा आज़ाद हुआ.
साल 1975 से साल 1977 के बीच आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष और जनता पार्टी के गठन तक में संघ की भूमिका की याद अब भी कई लोगों के लिए ताज़ा है. सत्याग्रह में हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रह कर आंदोलन चलाना शुरु किया. आपातकाल के खिलाफ पोस्टर सड़कों पर चिपकाना, जनता को सूचनाएं देना और जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओं -नेताओं के बीच संवाद सूत्र का काम संघ कार्यकर्ताओं ने संभाला. जब लगभग सारे ही नेता जेलों में बंद थे, तब सारे दलों का विलय करा कर जनता पार्टी का गठन करवाने की कोशिशें संघ की ही मदद से चल सकी थीं.
साल 1955 में बना भारतीय मज़दूर संघ शायद विश्व का पहला ऐसा मज़दूर आंदोलन था, जो विध्वंस के बजाए निर्माण की धारणा पर चलता था. कारखानों में विश्वकर्मा जयंती का चलन भारतीय मज़दूर संघ ने ही शुरू किया था. आज यह विश्व का सबसे बड़ा, शांतिपूर्ण और रचनात्मक मज़दूर संगठन है.
जहां बड़ी संख्या में ज़मींदार थे उस राजस्थान में ख़ुद सीपीएम को यह कहना पड़ा था कि भैरों सिंह शेखावत राजस्थान में प्रगतिशील शक्तियों के नेता हैं. संघ के स्वयंसेवक शेखावत बाद में भारत के उपराष्ट्रपति भी बने.
भारतीय विद्यार्थी परिषद, शिक्षा भारती, एकल विद्यालय, स्वदेशी जागरण मंच, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की स्थापना. विद्या भारती आज 20 हजार से ज्यादा स्कूल चलाता है, लगभग दो दर्जन शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज, डेढ़ दर्जन कॉलेज, 10 से ज्यादा रोजगार एवं प्रशिक्षण संस्थाएं चलाता है.
केन्द्र और राज्य सरकारों से मान्यता प्राप्त इन सरस्वती शिशु मंदिरों में लगभग 30 लाख छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं और 1 लाख से अधिक शिक्षक पढ़ाते हैं. संख्या बल से भी बड़ी बात है कि ये संस्थाएं भारतीय संस्कारों को शिक्षा के साथ जोड़े रखती हैं.
अकेला सेवा भारती देश भर के दूरदराज़ के और दुर्गम इलाक़ों में सेवा के एक लाख से ज़्यादा काम कर रहा है. लगभग 35 हज़ार एकल विद्यालयों में 10 लाख से ज़्यादा छात्र अपना जीवन संवार रहे हैं. सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर से आतंकवाद से अनाथ हुए 57 बच्चों को गोद लिया है जिनमें 38 मुस्लिम और 19 हिंदू बच्चे हैं.
साल 1971 में ओडिशा में आए भयंकर चंक्रवात से लेकर भोपाल की गैस त्रासदी तक, साल 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों से लेकर गुजरात के भूकंप, सुनामी की प्रलय, उत्तराखंड की बाढ़ और कारगिल युद्ध के घायलों की सेवा तक - संघ ने राहत और बचाव का काम हमेशा सबसे आगे होकर किया है.
प्रस्तुत है पाञ्चजन्य का लेख
27 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
कोटली के अमर बलिदानी
‘हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिन्दुस्तान’ की पूर्ति के लिए नवनिर्मित पाकिस्तान ने 1947 में ही कश्मीर पर हमला कर दिया। देश रक्षा के दीवाने संघ के स्वयंसेवकों ने उनका प्रबल प्रतिकार किया। उन्होंने भारतीय सेना, शासन तथा जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह को इन षड्यन्त्रों की समय पर सूचना दी। इस गाथा का एक अमर अध्याय 27 नवम्बर, 1948 को कोटली में लिखा गया, जो इस समय पाक अधिकृत कश्मीर में है।
युद्ध के समय भारतीय वायुयानों द्वारा फेंकी गयी गोला-बारूद की कुछ पेटियां शत्रु सेना के पास जा गिरीं। उन्हें उठाकर लाने में बहुत जोखिम था। वहां नियुक्त कमांडर अपने सैनिकों को गंवाना नहीं चाहते थे, अतः उन्होंने संघ कार्यालय में सम्पर्क किया। उन दिनों स्थानीय पंजाब नैशनल बैंक के प्रबंधक श्री चंद्रप्रकाश कोटली में नगर कार्यवाह थे। उन्होंने कमांडर से पूछा कि कितने जवान चाहिए ? कमांडर ने कहा - आठ से काम चल जाएगा। चंद्रप्रकाश जी ने कहा - एक तो मैं हूं, बाकी सात को लेकर आधे घंटे में आता हूं।
चंद्रप्रकाश जी ने जब स्वयंसेवकों को यह बताया, तो एक-दो नहीं, 30 युवक इसके लिए प्रस्तुत हो गये। कोई भी देश के लिए बलिदान होने के इस सुअवसर को गंवाना नहीं चाहता था। चंद्रप्रकाश जी ने बड़ी कठिनाई से सात को छांटा; पर बाकी भी जिद पर अड़े थे। अतः उन्हें ‘आज्ञा’ देकर वापस किया गया। सबने अपने आठों साथियों को सजल नेत्रों से विदा किया।
अवलोकन करें:--
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सैनिक कमांडर ने उन आठों को पूरी बात समझाई। भारतीय और शत्रु सेना के बीच में एक नाला था, जिसके पार वे पेटियां पड़ी थीं। शाम का समय था। सर्दी के बावजूद स्वयंसेवकों ने तैरकर नाले को पार किया तथा पेटियां अपनी पीठ पर बांध लीं। इसके बाद वे रेंगते हुए अपने क्षेत्र की ओर बढ़ने लगे; पर पानी में हुई हलचल और शोर से शत्रु सैनिक सजग हो गये और गोली चलाने लगे। इस गोलीवर्षा के बीच स्वयंसेवक आगे बढ़ते रहे।
इसी बीच श्री चंद्रप्रकाश और श्री वेदप्रकाश को गोली लग गयी। उस ओर ध्यान दिये बिना बाकी छह स्वयंसेवक नाला पारकर सकुशल अपनी सीमा में आ गये और कमांडर को पेटियां सौंप दी। अब अपने घायल साथियों को वापस लाने के वे फिर नाले को पार कर शत्रु सीमा में पहुंच गये। उनके पहुंचने तक उन दोनों वीर स्वयंसेवकों के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। स्वयंसेवकों ने उनकी लाश को अपनी पीठ पर बांधा और लौट चले। यह देख शत्रुओं ने गोलीवर्षा तेज कर दी। इससे एक स्वयंसेवक और मारा गया।
उसकी लाश को भी पीठ पर बांध लिया गया। तब तक एक अन्य गोली ने चौथे स्वयंसेवक की कनपटी को बींध दिया। वह भी मातृभूमि की रक्षा हित बलिदान हो गया। इस दल के वापस लौटने का दृश्य बड़ा कारुणिक था। चार बलिदानी स्वयंसेवक अपने चार घायल साथियों की पीठ पर बंधे थे। जब उन्हें चिता पर रखा गया, तो ‘भारत माता की जय’ के निनाद से आकाश गूंज उठा। नगरवासियों ने फूलों की वर्षा की।
इन स्वयंसेवकों का बलिदान रंग लाया। उन पेटियांे से प्राप्त सामग्री से सैनिकों का उत्साह बढ़ गया। वे भूखे शेर की तरह शत्रु पर टूट पड़े। कुछ ही देर में शत्रुओं के पैर उखड़ गये और चिता की राख ठंडी होने से पहले ही पहाड़ी पर तिरंगा फहराने लगा। सेना के साथ प्रातःकालीन सूर्य ने भी अपनी पहली किरण चिता पर डालकर उन स्वयंसेवकों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
(संदर्भ : पांचजन्य 28.2.2010)
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