विनोद बंसल (राष्ट्रीय प्रवक्ता-विहिप) |
कहा जाता है कि किसी देश को भीतर से खोखला करना हो तो उसके इतिहास के गौरव शाली पलों को मिटा कर जनता में अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान समाप्त कर दो व्यक्ति का स्वाभिमान अपने आप दम तोड़ देगा और फिर उस के ऊपर ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू करो कि वह सदा आपका ही गुणगान करे. लार्ड मैकाले की शिक्षा व्यवस्था का मूल मंत्र यही तो था जिस कारण पूर्ण स्वावलंबी सोने की चिड़िया के रूप में जाना जाने वाला भारत अंग्रेजों के जाते जाते टीचर प्रोफ़ेसर लेक्चरर प्रिंसीपल उस्ताद मौलवी इत्यादि तो बहुत सारे दे गए किन्तु आचार्य यानि आचारवान व्यक्तियों का अभाव हो गया. अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमारी शिक्षा, संस्कार, स्वाभिमान, इतिहास तथा महापुरुषों की गौरवशाली परम्पराओं को नष्ट करने के कुचक्र आजकल नित नए तरीकों से चलाए जा रहे हैं. कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कभी कला की आजादी, तो कभी खाने की आजादी की आड़ में आजकल नए-नए षडयंत्र हमारे धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक तथा आध्यात्मिक मान बिन्दुओं पर छद्म हमले कर अपनों को अपनों से ही दूर ले जा रहे हैं. अभी ताजा-ताजा उदाहरण प्रसिद्ध फिल्मकार संजय लीला भंसाली द्वारा निर्माणाधीन फिल्म ‘पद्मावती’ का है जिसमें राजस्थान के चित्तौड़ गढ़ की आन बान और शान की प्रतीक रानी पद्मावती के चरित्र पर उंगली उठाने की कोशिश की गई है. आओ जानें रानी पद्मावती को संक्षेप में|
रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रतनसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा| रतनसिंह की रानी पद्मिनी/पद्मावती की सुन्दरता की ख्याती दूर-दूर तक थी| उसकी इसी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली के तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी को पाने के लिए चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी| चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद जब वहचितौड़ के किले में घुस तक नहीं पाया तो उसने एक कुटिल योजना बनाते हुए अपने दूत को राजा रतनसिंह के पास भेजा. सन्देश भेजा कि "हम तो आपसेमित्रता करना चाहते है. रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे”| सन्देश सुनकर रतनसिंह आग-बबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रतनसिंह को समझाया कि मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिकों का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है”| मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी, इसी कारण रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो मेरा मुख आईने में देख सकता है| अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूटेगा तथा बदनामी भी होगी अत: उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |
चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रतनसिंह ने अतिथि की तरह किया| रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों-बीच था सो दीवार पर एकबड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया| आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ दिखाई पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया| सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली. राजपूताना अतिथि परम्परा के तहत जब रतनसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रतनसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया और बाद में रतनसिंह कि मुक्ति के बदले रानी पद्मावती को सौंपने का प्रस्ताव भेजा. रानी ने भी उसकी कुटिलता का जबाव कूटनीति से देकर सन्देश भेजा कि -"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे| रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा और प्रस्ताव स्वीकार कर लिया|
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाईं. इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिकों को बिठाकर छंटे हुए योद्धाओं को कहारों के वेश में भेज दिया| इस तरह पूरी तैयारी कर वह वीर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली| उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर भी थे| अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे|पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर जैसे ही रुकीं, उनमें से राजपूत वीर अपनी तलवारें लहराते हुए बाहर निकले और यवन सेना पर अचानक टूट पड़े. परिणामतः अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा, बादल ने तत्परता से अपने राजा को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया|
इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने की ठान ली | आखिर उसके छ: माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री का अभाव हो गया. तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया| जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया| रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया| थोडी ही देर में देवदुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया| जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी|
फ्रांस के एक प्रसिद्ध इतिहासकार ने अपनी भारत यात्रा के दौरान राजस्थान भ्रमण के बाद लिखा था "राजस्थान की धरती पर पाँव रखने का साहस नहीं होता... पता नहीं पाँव के नीचे किस वीर/वीरांगना का थान (समाधि) हो". वास्तव में राजस्थान के सोने सी चमकती बालू रेत के हर एक कण कण में एक वीरगाथा लिखी है. चित्तौड़ की ऐसी महान विभूतियों के अपमान पर भी यदि कोई कहे कि राजपूतों को अपना खून काबू में रखना चाहिए तो यही कहा जाएगा कि वह बुद्धू या तो राजस्थान की धरती से परिचित नहीं है या फिर जानबूझ कर कोई षडयंत्र कर रहा है. हालांकि हिन्दू समाज कभी भी किसी प्रकार की हिंसा या कानून के उल्लंघन में कभी विश्वास नहीं रखता किन्तु आखिर कब तक वह सहन करेगा? जब कोई माँ दुर्गा, सरस्वती या भारत माता के नग्न चित्र बनाए या फिर भगवान शंकर को अभद्रता से दौडाए, कोई हमारे आस्था स्थल, मंदिरों, संतों, सांस्कृतिक मान्यताओं, वीर-वीरांगनाओं, परम्पराओं व धर्म गुरुओं का अपमान करे या सरे आम गौ मांस खाने का दम्भ भरे तो भी? क्या सभी संवैधानिक मर्यादाओं के पालन की जिम्मेदारी सिर्फ शांति प्रिय हिन्दू समाज की ही है? इतना समझ लेना चाहिए कि अब भारत जाग रहा है और अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ संवैधानिक रूप से कदम बढाने में सक्षम है. अत: जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है वहीँ सभी को अपनी धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक धरोहरों तथा पुरातन वीर गाथाओं को संजोकर रखने का भी अधिकार है. आवश्यकता इस बात की है कि कोई किसी के अधिकारों में अतिक्रमण न करे और एक दूसरे का सम्मान कर अपने अधिकारों से अधिक कर्तव्यों का पालन करे.
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