भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में सार्क देशों के गृहमंत्रियों की कान्फ्रेंस में गए तो वहां पर उनका बेहद ठंडा स्वागत हुआ। इतना खराब कि गोया पाकिस्तान को मेजबान धर्म का निर्वाह करने की तमीज ही न हो। राजनाथ ने भी पाकिस्तान का नाम लिए बिना उसे आतंकवाद पर नकेल कसने की नसीहत दी। अब वित्त मंत्री अरुण जेटली, सार्क देशों के वहां होने वाले एक अहम सम्मेलन में भाग लेने के लिए इस्लामबाद नहीं जा रहे हैं। इसके अलावा पाकिस्तान जिस तरह से हमारे आंतरिक मामलों में टांग अड़ा रहा है, उससे साफ है कि उसे पड़ोसी बनना भी नहीं आता। पाकिस्तान के इसी तरह के नकारात्मक व्यवहार के चलते सार्क आंदोलन अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पा रहा है।
हालांकि पूरी दुनिया परस्पर आर्थिक सहयोग के महत्व को समझने लगी है, पर इस मोर्चे पर सार्क देशों को पाकिस्तान की नकारात्मक नीतियों के कारण अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है। जाहिर है, इसी के चलते भारत-पाकिस्तान, जो सार्क सम्मेलन के सबसे बड़े देश हैं, के बीच भी आर्थिक सहयोग कम ही रहा। यह स्थिति बाकी देशों के बीच भी है। दरअसल दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौता (साफ्टा) के क्रियान्वयन में प्रगति के चलते सार्क देशों के बीच व्यापार के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की जरूरत है। दक्षिण एशिया में आर्थिक वृद्धि में तेजी लाने में व्यापार सबसे महत्वपूर्ण औजार हो सकता है। साफ्टा के क्रियान्वयन में सराहनीय प्रगति हुई है, फिर भी काफी कुछ किया जाना बाकी है। सार्क देशों के बीच साफ्टा पर 2004 में इस्लामाबाद में हस्ताक्षर किया गया था और इसके तहत वर्ष 2016 के अंत तक सीमा शुल्क घटाकर शून्य पर लाने का लक्ष्य रखा गया है, लेकिन पाकिस्तान के असहयोगपूर्ण रुख के कारण ये दूर की संभावना नजर आती है।
साफ्टा के तहत दक्षेस देशों के बीच व्यापार बढ़ तो रहा है पर यह हमारे कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार की तुलना में बहुत कम है जबकि संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं। साउथ एशिया में इंट्रा-रीजनल ट्रेड सिर्फ छह फीसदी है जबकि दुनिया के दूसरे रीजनल एसोसिएशन की बात करें तो यूरोपियन यूनियन (ब्रिटेन के अलग होने से पहले तक) का आपसी कारोबार साठ फीसदी, नाफ्टा का पच्चास फीसदी और आसियान का पच्चीस फीसदी है। अगर सार्क के सदस्य देशों के साथ अलग-अलग व्यापार पर नजर डालें तो बांग्लादेश सबसे बड़ा साथीदार दिखता है। इसके बाद है श्रीलंका जिसके साथ भारत का कारोबार 600 करोड़ डॉलर सालाना का है। इसी तरह नेपाल के साथ 350 करोड़ डॉलर और पाकिस्तान के साथ 222 करोड़ डॉलर का है। इन देशों के अलावा अफगानिस्तान के साथ भारत का व्यापार करीब 60 करोड़ डॉलर, भूटान के साथ करीब 38 करोड़ डॉलर और मालदीव्स के साथ करीब 15 करोड़ डॉलर का रहा। इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सार्क देशों के साथ आपसी कारोबार बढ़ाने की गुंजाइश कितनी ज्यादा है।
सार्क देशों में आर्थिक सहयोग की खराब हालत की एक बानगी देख लीजिए। भारत के प्रमुख औद्योगिक समूह टाटा ने साल 2007 में बांग्लादेश में तीन अरब डॉलर की निवेश योजना बनाई थी। टाटा वहां पर अलग-अलग क्षेत्रों में निवेश करना चाहता था पर वहां पर इसका तगड़ा विरोध शुरू गया। बांग्लादेश की खालिदा जिया के नेतृत्व में तमाम विपक्षी दलों ने टाटा के बांग्लादेश में निवेश की योजना का यह कहकर विरोध किया कि वह देश के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी साबित होगा। फिर बांग्लादेश सरकार ने भी टाटा की प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाने में देरी की। टाटा समूह ने निवेश योजना के तहत इस्पात प्लांट, यूरिया फैक्ट्री और कोयला खदान के लिए 1000 मेगावाट क्षमता वाली बिजली इकाई लगाने का प्रस्ताव दिया था। इस उदाहरण से साफ है कि सार्क देशों में आपसी व्यापार को गति देने के लिहाज से कितना खराब माहौल है। सबसे अफसोस की बात तो ये है कि सार्क देश आतंकवाद को कुचलने के सवाल पर भी एक तरह से नहीं सोच रहे। पाक दुनियाभर में आतंकवाद की सप्लाई कर रहा है। इसके बावजूद पाक के रहनुमा आतंकवाद के सवाल पर भारत के साथ खड़े होने को राजी नहीं है। हालांकि ओबामा बिन लादेन पाकिस्तान में ही पाया गया था।
हिज्बुल आतंकी बुरहान वानी की ओर इशारा करते हुए राजनाथ ने कहा कि आतंकवाद का महिमामंडन बंद होना चाहिए। आतंकवाद अच्छा या बुरा नहीं होता है। जाहिर है, राजनाथ सिंह का इशारा पाकिस्तान की तरफ ही था। चूंकि पाकिस्तान का रुख तो नेगेटिव होता जा रहा है तो बेहतर होगा कि शेष सार्क देश पाक को सार्क से चलता करें। सार्क देशों को आतंकवाद का लंबे तक सामना किया है। बेहतर होता कि इस अहम मसले पर सार्क देश मिलकर काम करते। देखा ये गया है कि सार्क आतंकवाद से लड़ने का संकल्प तो लेता है, पर बात आगे नहीं बढ़ पाती। इसके अलावा भी तमाम मसलों पर सार्क में आपसी तालमेल और परस्पर सहयोग का अभाव ही दिखता है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए सार्क शिखर बैठकों में हर बार रस्मी तौर पर प्रस्ताव पारित हो जाता है। इसमें कमोबेश यही कहा जाता है कि दक्षेस देश आतंकी गतिविधियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी, उन पर अभियोजन और उनके प्रत्यर्पण में सहयोग करेंगे। इसमें हर तरह के आतंकवाद के सफाए के लिए सहयोग को मजबूत करने पर जोर दिया जाता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि ये मुल्क अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों में नहीं होने देंगे।
प्रस्ताव में आतंकवाद, हथियारों की तस्करी, जाली नोट, मानव तस्करी आदि चुनौतियों से निपटने में क्षेत्रीय सहयोग की बात कही जाती है। हालांकि कुल मिलाकर बात प्रस्ताव से आगे नहीं बढ़ती। आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साल 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क राष्ट्रों के नेताओं को आमंत्रित करके इस मृत होते जा रहे संगठन को फिर से जिंदा करने की पहल की थी पर पाक की तरफ से कोई कोशिश नहीं हुई। दरअसल सार्क दक्षिण एशिया के आठ देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है। इसकी स्थापना 8 दिसंबर, 1985 को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा मिलकर की गई थी। अप्रैल 2007 में संघ के 14वें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान इसका आठवां सदस्य बन गया। 1970 के दशक में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने दक्षिण एशियाई देशों के एक व्यापार गुट के सृजन का प्रस्ताव किया। मई 1980 में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का विचार फिर रखा गया था।
अप्रैल 1981 में सातों देश के विदेश सचिव कोलंबो में पहली बार मिले। इनकी समिति ने क्षेत्रीय सहयोग के लिए पांच व्यापक क्षेत्रों की पहचान की। सहयोग के नए क्षेत्रों में आने वाले वर्षों में जोड़े गए। हालांकि सार्क शुरुआती सालों के उत्साह के बाद पहले की तरह से एक्टिव नहीं रहा। इसकी एक वजह यह भी सार्क देशों के बीच आपसी मतभेद भी खासे रहते हैं। मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में सार्क नेताओं को बुलाया जाना साबित करता है कि भारत सार्क को लेकर गंभीर है। उसकी चाहत है कि सार्क फिर से एक्टिव हो। इसके सदस्य देश आपसी सहयोग करें, लेकिन पाकिस्तान जिस बेशर्मी से भारत में आतंकी तत्वों को खाद-पानी दे रहा है, उससे माना जा सकता है कि पाकिस्तान के इसमें रहने तक सार्क का कोई भविष्य नहीं है इसलिए सभी देशों को मिलकर पाक को सार्क से बाहर करने के संबंध में सोचना होगा नहीं तो सार्क आंदोलन कागजों पर चलता रहेगा।
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