भारत के सबसे बड़े नेताओं में से एक और दलितों के सबसे बड़े नेता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है”.
भारत में दलित (जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था) सबसे ख़राब स्थितियों में जीते हैं क्योंकि हिंदुओं की जाति व्यवस्था उन्हें समाज में सबसे निचले स्थान पर रखती है। हालांकि हिंदुओं में छुआछूत के बहुत सारे प्रमाण हैं और इस पर बहुत चर्चा भी हुई है लेकिन भारत के मुसलमानों के बीच छुआछूत पर बमुश्किल ही बात की गई है।
उसका कारण है कि मुसलमान अपने आपको पहले मुसलमान मानता है। हिन्दुओं से कहीं अधिक भेदभाव मुसलमानों में होते हुए भी कोई चर्चा नहीं होती। हिन्दुओं में भेदभाव को केवल राजनैतिक उद्देश्य के लिए उछाला जाता है। ताकि हिन्दू आपस में लड़ते रहे और हम अपना उल्लू सीधा करते रहें। जबकि हिन्दुओं से ज्यादा जाति भेदभाव ईसाई एवं मुस्लिम धर्म में है। किन्तु किसी भी मुद्दे पर लड़ते हैं केवल ईसाई एवं मुसलमान एक सुर में बोलते हैं।ये नहीं बोलता कोई कि शिया, सुन्नी या बरेलवी या किसी कैथोलिक अथवा दूसरे का मसला है। हिन्दुओं में विवाद खड़े किये जाते हैं कि ये कायस्थ, वैश्य, ब्राह्मण आदि आदि। लेकिन जिस दिन ईसाई एवं मुस्लिमों में होते भेदभाव को उजागर करने का प्रयत्न किया या तो दंगो की नौबत आ जाएगी या फिर उत्पीडन इतनी भयंकर रूप धारण कर लेगी, जिसे सुलझाने कोई तृप्ति देसाई, पादरी या उलेमा सुलझाने आगे नहीं आने का साहस कर पाएगा। सारे चैनल मंदिरों पर चौपाल बैठा सकते हैं। परन्तु ईसाई एवं मुस्लिम में होते भेदभाव पर चर्चा करने का किसी में साहस नहीं। भारत में इतने चर्च और मस्जिदें हैं, क्या सब ईसाईयों और मुसलमानों को किसी भी चर्च या मस्जिद में अपनी प्रार्थना करने का अधिकार है?
इसकी एक वजह तो यह है कि इस्लाम में जाति नहीं है और यह समानता और समतावाद को बढ़ावा देता है, जोकि मात्र एक छलावा है। वैसे अब जिस तरह मुस्लिम महिलाएं तलाक के मुद्दे पर बाहर आनी शुरू हुई हैं, यदि इसी मुद्दे पर गम्भीरता से विचार किया जाये तो खतना एवं सुन्नत जैसे विषय भी उभर आएंगे। मुहर्रम के बाद एक और ताज़िया निकलता है, जिसमें लोग छाती पीटने के अलावा डेढ़ दो फुट लम्बी चैनों में लगी छुरियों को घुमा-घुमाकर अपने जब मारते हैं शरीर ज़ख़्मी होने पर खून बहता है, क्या उचित है? हिन्दू धर्म में सती प्रथा पर तो सब धर्म के ठेकेदार बन इसको बंद करने के लिए खड़े हो गए थे, होली एवं दीपावली पर प्रवचन देते हैं ऐसे मत करो और वैसे मत करो, लेकिन इन मुद्दों पर बोलने का किसी में साहस नहीं। एक नहीं अनेकों ज्वलंत मुद्दे हैं। साज़ में सुरों का अम्बार है,बस तानपुरा छेड़ने वाला चाहिए। फिर सुनिए “एक तारा बोले सुन,सुन,सुन ,क्या बोले ये तुमसे सुन,सुन, सुन …. “
भारत के मुसलमानों में से ज़्यादातर स्थानीय हैं जिन्होंने धर्मपरिवर्तन किया है. अधिकतर ने हिंदू उच्च-जातियों के उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम ग्रहण किया.
सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के एक संगठन के प्रतिनिधि एजाज़ अली के अनुसार वर्तमान भारतीय मुसलमान की 75 फ़ीसदी दलित आबादी इन्हीं की है जिन्हें दलित मुसलमान कहा जाता है.
इस विषय पर काम करने वाले राजनीति विज्ञानी डॉक्टर आफ़ताब आलम कहते हैं, “भारत और दक्षिण एशिया में रहने वाले मुसलमानों के लिए जाति और छुआ-छूत जीवन की एक सच्चाई है.”
अध्ययनों से पता चलता है कि “छुआछूत इस समुदाय का सबसे ज़्यादा छुपाया गया रहस्य है. शुद्धता और अशुद्धता का विचार; साफ़ और गंदी जातियां” मुसलमानों के बीच मौजूद हैं.
अली अलवर की एक किताब के अनुसार हिंदुओं में दलितों को अस्पृश्य कहा जाता है तो मुसलमान उन्हें अर्ज़ाल (ओछा) कहते हैं.
डॉक्टर आलम के साल 2009 में किए एक अध्ययन के अनुसार किसी भी प्रमुख मुस्लिम संगठन में एक भी ‘दलित मुसलमान’ नहीं था और इन सब पर ‘उच्च जाति’ के मुसलमानों ही प्रभावी थे.
अब कुछ शोधकर्ताओं के समूह के किए अपनी तरह के पहले बड़े अध्ययन से पता चला है कि भारतीय मुसलमानों के बीच भी छुआछूत का अभिशाप मौजूद है.
प्रशांत के त्रिवेदी, श्रीनिवास गोली, फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों का सर्वेक्षण किया.
उनके अध्ययन के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैः
• ‘दलित मुसलमानों’ के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता. यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है.
• ‘दलित मुसलमानों’ के एक समूह ने कहा कि उन्हें गैर-दलितों की दावतो में अलग बैठाया जाता है. इसी संख्या के एक और समूह ने कहा कि वह लोग उच्च-जाति के लोगों के खा लेने के बाद ही खाते हैं. बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि उन्हें अलग थाली में खाना दिया जाता है.
• करीब 8 फ़ीसदी ‘दलित मुसलमानों’ ने कहा कि उनके बच्चों को कक्षा में और खाने के दौरान अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है.
• कम से कम एक तिहाई ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते. वह या तो उन्हें अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में.
• ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं लेकिन कुछ जगहों पर ‘दलित मुसलमानों’ को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है.
• ‘दलित मुसलमानों’ के एक उल्लेखनीय तबके ने कहा कि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनके समुदाय को छोटे काम करने वाला समझा जाता है.
• ‘दलित मुसलमानों’ से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना/पानी दिया गया. उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है.
• इसी तरह करीब 20 फ़ीसदी प्रतिभागियों को लगा कि उच्च जाति के मुसलमान उनसे दूरी बनाकर रखते हैं और 25 फ़ीसदी ‘दलित मुसलमानों’ के साथ को उच्च जाति के हिंदुओं ने ऐसा बर्ताव किया.
• जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई ‘दलित मुसलमान’ परिवार नहीं रहता था.
• 20 फ़ीसदी ने दलित मुसलमानों के साथ किसी तरह की सामाजिक संबंध होने से इनकार किया. और जो लोग ‘दलित मुसलमानों’ के घर जाते भी हैं उनमें से 20 फ़ीसदी उनके घरों में बैठते नहीं और 27 फ़ीसदी उनकी दी खाने की कोई चीज़ ग्रहण नहीं करते.
• गैर-दलित मुसलमानों से पूछा गया था कि वह जब कोई दलित मुसलमान उनके घर आता है तो क्या होता है. इस पर 20 फ़ीसदी ने कहा कि कोई ‘दलित मुसलमान’ उनके घर नहीं आता. और जिनके घऱ ‘दलित मुसलमान’ आते भी हैं उनमें से कम से कम एक तिहाई ने कहा कि ‘दलित मुसलमानों’ को उन बर्तनों में खाना नहीं दिया जाता जिन्हें वह आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं.
भारत में जाति के आधार पर भेदभाव सभी धार्मिक समुदायों में मौजूद है- सिखों में भी. पारसी ही शायद अपवाद हैं.
भारत में जाति के आधार पर भेदभाव सभी धार्मिक समुदायों में मौजूद है- सिखों में भी. पारसी ही शायद अपवाद हैं.
प्रशांत के त्रिवेदी कहते हैं, “आमतौर पर माना जाता है कि जाति एक हिंदू अवधारणा है क्योंकि जाति को हिंदुओं के धर्मग्रंथों से ही मान्यता मिलती है. यह औपनिवेशिक काल से सरकारों और विद्वानों की सोच पर प्रभावी रही है.”
अन्य शोधार्थियों के साथ उनका मानना है कि दलित मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू दलितों की तरह फ़ायदे मिलने चाहिएं.
इससे सबक यह मिलता है कि भारत में भले ही आप जाति छोड़ दें लेकिन जाति आपको नहीं छोड़ती। और भारतीय नेताओं को वोट-बैंक राजनीति नहीं छोड़ती। इनको भी सारा खोट हिन्दुओं में ही दिखता है, अन्य धर्मों के खोट पर सूरदास बन वोट-बैंक ग्रन्थावली रचने बैठ जाते हैं।
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