क्या आपने कभी सोचा है कि कोई मुलायम या कोई मायावती समय-समय पर यूपीए की तरफ दोस्ती का हाथ क्यों बढ़ाते रहते हैं? या अपमान के बावजूद क्यों करुणानिधि को यूपीए के साथ ही खड़ा होना पड़ता है. या यूपीए ममता बनर्जी के अलावा हर किसी को आसानी से कैसे मना लेता है? इसका जवाब केंद्र सरकार के सीबीआई पर जबरदस्त मनचाहे नियंत्रण में निहित है, जिसे सभी को ब्लैकमेल करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, ममता जैसे दुर्लभ अपवादों के अलावा.
चलिए कुछ मामलों पर नजर डालते हैं. वाईएसआरसी अध्यक्ष वाई.एस. जगमोहन रेड्डी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि उसने अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी को परेशान करने के लिए सीबीआई को हथियार बनाया. वाई.एस. जगमोहन रेड्डी की पत्नी वाई.एस. भारती के स्वामित्व वाले साक्षी टीवी चैनल ने घंटे भर का कार्यक्रम दिखाकर सोनिया और राहुल गांधी बदनाम किया. इसके बाद सीबीआई ने जगमोहन रेड्डी पर आय से ज्यादा संपत्ति का आरोप लगाया और कई धाराओं में उन पर मुकदमा दर्ज किया. यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का मामला भी ऐसा ही था. 2007 में ताज हेरिटेज कॉरिडोर मामले में क्लीनचिट पाने के बाद मायावती ने यूपीए सरकार पर आरोप लगाया कि यूपीए से समर्थन वापस लेने का बदला लेने के लिए उसने सीबीआई को इस्तेमाल करके उन्हें आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में घसीटा.
इसी तरह सोहराबुद्दीन का मामला भी जांच के अधीन आया, मगर पता चला कि यूपीए सरकार ने गुजरात की मौजूदा सरकार को परेशान करने के लिए ब्यूरो को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया, जबकि इस मामले का राजनीति से कोई संबंध नहीं था. यहां तक कि आईपीएस अधिकारी गीता जोशी ने अगस्त 2010 में आरोप लगाया कि सोहराबुद्दीन के फर्जी एंकाउंटर मामले की जांच में सीबीआई ने उन पर दबाव बनाया कि भाजपा सरकार को परेशान करने के लिए गुजरात के पूर्व मंत्री अमित शाह को फंसा दें. ऐसा नहीं है कि खदानों का घोटाला केंद्र के संज्ञान में नहीं था, मगर यह आरोप लगाया जाता है कि रेड्डी बंधुओं के भाजपा से करीब होने के कारण सरकार ने उन्हें सलाखों के पीछे भेजने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया.
दूसरी तरफ, सरकार के खिलाफ दर्ज मामलों में ढील देने के लिए सीबीआई का लगातार दुरुपयोग किया जाता है. सीबीआई ने चार्जशीट में दावा किया कि जसबीर सिंह, जिसने टाइटलर को सिखों को मारने के लिए भीड़ को भड़काते सुना, से इसलिए पूछताछ नहीं की जा सकी क्योंकि वह अमेरिका जा बसा है और उसका ठिकाना नहीं पता लगाया जा सका. सीबीआई का दावा झूठा साबित हो गया जब मीडिया ने तुरंत ही टेलीफोन पर जसबीर सिंह को ढूंढ निकाला. जब न्यायालय ने मामले की दोबारा जांच का आदेश दिया तो बताया जाता है कि सीबीआई ने कहा कि जसबीर सिंह की गवाही पर भरोसा नहीं किया जा सकता और न्यायालय से केस को बंद करने की मांग की. पूरी घटना टाइटलर को बचाने के लिए हुई, जिनके सत्तासीन सरकार से निकट संबंध रहे.
इसी तरह सीबीआई ने सज्जन कुमार को बचाने का प्रयास किया, उनके भी यूपीए से करीबी रिश्ते रहे हैं. इसी तरह रोचक है कि हाई कोर्ट ने 5,700 करोड़ रुपये के एनआरएचएम घोटाले की जांच का आदेश दिया था मगर इसके बावजूद सीबीआई ने उत्तर प्रदेश चुनाव से कुछ महीने पहले तक ज्यादा कुछ नहीं किया. हालांकि सभी आरोप अचानक समाप्त कर दिए गए और मायावती के चुनाव हारते ही उनके खिलाफ सारे मामले दबा दिए गए. सीबीआई ने कहा कि उसने मायावती की संपत्ति का आंकलन करते समय ‘भारी भूल’ की. पहले परेशान की जा चुकी मायावती ने इसके बदले उत्तराखंड में यूपीए का समर्थन किया और राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए के उम्मीदवाद का भी.
ये सारे मामले किस ओर इशारा करते हैं? यह बहुत साफ है कि सरकार किसी को भी परेशान करने के लिए अपनी मर्जी ने सीबीआई का इस्तेमाल कर सकती है और जिसे खुश करना चाहती है उसे बरी करा सकती है. चूंकि सीबीआई को कुछ नौकरशाह चलाते हैं जो प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह होते हैं और चूंकि भारत तो भारत है और वे सभी प्रधामंत्री की नजरों में अच्छे बने रहना चाहते हैं (भले ही वह कितना ही निष्क्रिय और बौद्धिक रूप से जड़ हो) सीबीआई ऐसी संस्था बन जाती है जिससे आसानी से खेला जा सकता है. सीबीआई की स्थापना अप्रैल 1963 में की गई थी. मगर शर्मनाक है कि आज तक सीबीआई को नियंत्रण में करने वाला कोई कानून नहीं बनाया गया है. बल्कि वह अविश्वसनीय तौर पर बेकार हो चुके दिल्ली पुलिस एस्टैबलिशमेंट एक्ट (डीएसपीई) से संचालित होती है। एक ऐसा एक्ट जिसको खुद पूरा बदल देने की जरूरत है. यह सब इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि सीबीआई ने पहले ही सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन एक्ट 2010 का मसौदा तैयार कर लिया है जिसमें नौकरशाही डीएसपीई एक्ट से स्वतंत्रता की मांग की गई है. और इसके बजाय अब कैबिनेट ने एक ऐसा निर्णय लिया है जो सीबीआई को सूचना के अधिकार के घेरे से बाहर रखता है.
उपरोक्त परिस्थिति में यह आवश्यक है कि सीबीआई को स्वतंत्र संवैधानिक संस्था बनाया जाए ताकि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले लोग बनने के बजाय हमारे हालिया चुनाव आयुक्तों और सीएजी की तरह सीबीआई निदेशक भी ईमानदारी के चिर-परिचत उदाहरण बनें और भ्रष्टाचारग्रस्त इस देश से भ्रष्टाचार हटाने के अपने वास्तविक प्रयासों के लिए प्रशंसित हों. दिल्ली हाई कोर्ट ने पहले ही केंद्र, केंद्रीय सतर्कता आयोग, और सीबीआई को नोटिस दिए हैं जिनमें कहा गया है कि सीबीआई को तमाम राजनैतिक प्रभावों और दबावों से मुक्त करने के कदम उठाए जाएं. समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट मामले के महत्व के आधार पर सीबीआई को सीधे खुद को रिपोर्ट करने के लिए कहता है ताकि सीबीआई पर किसी भी तरह के प्रभाव से मुक्त रहे. यदि हम भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते हैं तो चुनाव आयोग और सीएजी की तरह सीबीआई को भी केवल और केवल भारत के सुप्रीम कोर्ट को ही जवाबदेह रखा जाए और किसी को नहीं.
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