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अफगान राजकुमारी से निकाह करेंगे ईसाई राजकुमार राहुल?
खबर है कि राहुल गाँधी अफगानिस्तान के पूर्व राजा स्वर्गीय जहीर शाह की पोती से शादी रचाने जा रहे हैं. कभी कांग्रेस के सांसद रहे एम जे अकबर के संपादन में निकलने वाले 'दि सन्डे गार्डियन' ने यह ख़बर ब्रेक की है कि राहुल गाँधी का अफगानिस्तान की राजकुमारी से प्रेम सम्बन्ध है. यों तो पहले भी उनका नाम कई विदेशी युवतियों के साथ जोड़ा जाता रहा है लेकिन रिपोर्टों के अनुसार राहुल इस अफगान युवती से शादी करने के लिए तैयार हो गए हैं. अखबार का दावा है कि राहुल गाँधी इस लड़की के साथ दिल्ली के अमन होटल में देखे गए हैं. यह वाही होटल है जहाँ वे जिम करने जाते रहे हैं.
रिपोर्टों के अनुसार राहुल से शादी के लिए राजकुमारी ने इस्लाम धर्म छोड़कर इसी धर्म ग्रहण कर लिया है. प्रेमी युगल ने सोनिया गाँधी के सरकारी आवास पर रविवार की प्रार्थना में भी भाग लिया है.
इस ख़बर ने कई ऐसे सवाल खड़े किये हैं जो राहुल की राजनीति के प्रतिकूल साबित हो सकते हैं और जिनका जवाब देना उनके लिए संभव नहीं होगा. पहला सवाल यह है कि क्या राहुल गाँधी ईसाई हैं? धर्म उनका निजी मामला है लेकिन वे स्वयं अपने को हिन्दू बताते रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनाओं के बाद उन्होंने अपनी जाति भी लोगों को बताई थी कि वे ब्राह्मण हैं. सुब्रमण्यम स्वामी पहले से यह बताते रहे हैं कि राहुल गाँधी का वास्तविक नाम राउल विन्ची है. कन्या के धर्मांतरण से तो स्वामी का यह आरोप सही साबित होता लगता है कि राहुल वास्तव में ईसाई ही हैं लेकिन राजनीतिक मजबूरियों की वजह से वे अपने को ब्राह्मण हिन्दू बताते रहे हैं. इसका मतलब यह है कि राहुल अपने बारे में लोगों को गलत सूचनाएँ देते हैं.
दूसरा सवाल यह है कि क्या गाँधी परिवार ने या फिर अकेले सोनिया ने राहुल से शादी के लिए राजकुमारी के सामने धर्मांतरण की शर्त रखी थी. और राजकुमारी ने मजबूर होकर अपने को मुसलमान से ईसाई बना लिया? यदि ऐसा है तो यह गाँधी परिवार की धर्मनिरपेक्ष छवि को धूमिल करने वाला काम है. तीसरा सवाल यह उठता है कि राहुल गाँधी बहु स्त्रीगामी हैं. ख़बर में कहा गया है कि राहुल की पहले भी कई महिला मित्र रही हैं लेकिन अबकी बार वे इस लड़की से शादी करने जा रहे हैं.
अब सच क्या है यह हो सकता है कि आनेवाले दिनों में स्वयं राहुल के मुंह से निकले लेकिन राहुल के लिए यह शादी राजनीतिक रूप से भरी पड़ेगी. क्योंकि इससे राहुल की झूठ पर टिकी राजनीति की चूलें हिल जाएँगी. काम, प्रेम और परिवार भले ही उनका निजी मामला है लेकिन ऊपर के सवाल किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए गंभीर मुश्किलों की तरह हैं, राहुल जैसे व्यक्ति के लिए तो और भी क्योंकि अपनी गणित के अनुसार वे २०१४ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. कान्ग्रेस की जो हालत है उसमें राहुल की शादी कोढ़ में खाज का काम कर सकती है और मोदी जैसे धर्म की राजनीति करने वाले नेता के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने का तर्क बन सकती है.
मोदी को आने दो
संघ को देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भाजपा को एक स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में पैरों पर खडा होने का अभ्यास करने देना चाहिये तथा स्वयं को विचार के स्तर पर मार्गदर्शक की भूमिका में अधिक रखना चाहिये। भाजपा देश की वर्तमान स्थिति को सुधार सकती है यदि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की तर्ज पर अब नरेंद्र मोदी और अरूण जेटली के मध्य शक्तियों का बँटवारा हो जाये क्योंकि यह साझेदारी अधिक लम्बी और टिकाऊ हो सकती है जो कि देश को नयी ऊर्जा भी दे सकती है।
उत्तर प्रदेश में जहाँ कि अभी कुछ दिनों पूर्व ही चुनाव हुए हैं और भारी बहुमत से एक सरकार चुनकर आयी है वह तेजी से अपनी लोकप्रियता खोती जा रही है। भारी भरकम वादों और अपेक्षाओं के बोझ तले दब रही इस सरकार ने उत्तर प्रदेश में नयी राजनीतिक सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि कुछ ही माह पूर्व जिस भाजपा को मुँह छिपाने की जगह नहीं मिल रही थी उसके बारे में उत्तर प्रदेश में लोग फिर से चर्चा करने लगे हैं। कम से कम भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच अब आगामी लोकसभा चुनावों के संदर्भ में बात होती है और फिलहाल कांग्रेस को एक चुकी हुई शक्ति मान लिया गया है। देश वर्तमान स्थिति के सन्दर्भ में मजबूत नेता और मजबूत एजेंडे की हनक के साथ जो भी राष्ट्रीय दल अपनी उपस्थिति अभी से जनता के मध्य दर्ज करा लेगा वही 2014 में बाजी मार ले जायेगा।
कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए तो यह दूर दूर तक नहीं दिखता कि वह राहुल गाँधी को आगे कर चुनाव लडने जा रही है। कांग्रेस के साथ निकटता रखने वाले मेरे कुछ मित्रों का मानना है कि कांग्रेस धीरे धीरे कुछ दिनों के लिये विपक्ष में बैठने का मन बना रही है और राहुल गाँधी को लेकर उनकी तैयारी अगले लोकसभा के लिये तो नहीं होगी। ऐसी स्थिति में दूसरी राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण भाजपा का यह दायित्व बनता है कि वह देश को बेहतर विकल्प दे। इस प्रक्रिया में जैसी सक्रियता और कुशलता उसे दिखानी चाहिये उससे वह कोसों दूर है। जिस प्रकार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर एक कदम आगे तो तीन कदम पीछे की नीति पार्टी अपना रही है वह घातक है। नरेंद्र मोदी को लेकर मूल रूप से दो प्रश्न उठते हैं कि इससे राजग एकजुट नहीं रह सकेगा और उनकी कार्यशैली को लेकर संगठन में आशंका है। ये दोनों ही प्रश्न बचकाने और प्रायोजित हैं।
राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनाये रखने के लिये संगठन को अपने अनुसार दाँव पेंच के दायरे में बनाये रखना कौन सी नयी बात है। आज जिन अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कसीदे काढे जा रहे हैं क्या उन्हें खुश रखने के लिये संगठन ने लोगों की बलि नहीं ली थी? पुरानी बात को कुरेदना उचित और प्रासंगिक भी नहीं है लेकिन कितने ही लोग अब भी अटल जी के साथ समन्वय स्थापित न कर पाने के कारण आजीवन वनवास भुगत रहे हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को आधार बनाना केवल एक बहाना है। इसी प्रकार राजग के टूटने की आशंका भी निराधार है। राजग में आज यदि जनता दल यूनाइटेड को छोड दिया जाये तो शेष सभी घटक भाजपा के स्वाभाविक और विचारधारागत मित्र हैं और हमें नहीं भूलना चाहिये कि 1996 में जब पहली बार श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे बडे दल के रूप में सरकार बनाने के लिये आमन्त्रित किया गया था तो यही स्वाभाविक मित्र साथ थे लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस के आरोपी सदस्यों के साथ ही 1998 में राजग सदस्य 300 से भी अधिक हो गये। ऐसा क्यों हुआ ?क्योंकि भाजपा की अपनी शक्ति इतनी हो गयी कि उसके बिना सरकार बन पाना असम्भव था। आज पुनः वही स्थिति सामने है कि यदि भाजपा अपने बल पर 175 से अधिक का आँकडा छू लेती है तो घटक दलों में धर्मनिरपेक्षता के अनेक ठेकेदार पंक्तिबद्ध होकर समर्थनपत्र लेकर खडे नजर आयेंगे।
आज राजग के बिखराव की बात करके नरेंद्र मोदी का मार्ग अवरुद्ध करने का घटनाक्रम राजग सरकार के उन दिनों को याद दिलाता है कि जब श्री जार्ज फर्नांडीस को आगे कर तत्कालीन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री हिंदुत्व के किसी भी मुद्दे पर आगे बढने से इंकार कर देते थे कि इससे राजग बिखर जायेगा। आज वही स्थिति फिर से सामने है जब कुछ लोग अपनी निजी मह्त्वाकाँक्षा के चलते राजग के बिखराव की दूर की कौडी चल रहे हैं।
आज देश की जो स्थिति है उसने सर्वत्र निराशा का वातावरण खडा कर दिया है। आर्थिक स्थिति से लेकर विदेश नीति और विश्व में भारत की स्थिति पर बुरा असर पड रहा है। वर्तमान वैश्विक स्थिति को देखते हुए सदियों के बाद भारत के पास अपनी सभ्यतागत भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्राप्त हुआ है और यदि इस अवसर को हमने हाथ से जाने दिया तो पिछली अनेक पीढियों का बलिदान औत त्याग व्यर्थ हो जायेगा। यह बात कम से कम उन लोगों को तो समझनी ही चाहिये जिन्होंने भारतमाता को वैभवशाली बनाने के स्वप्न को लेकर ही अपनी अनेक पीढियाँ व्यतीत की हैं।
यदि चुनावी ग़णित के हिसाब से भी देखें तो नरेंद्र मोदी को आगे करने से भाजपा को कोई क्षति नहीं होने वाली है। पिछले कुछ वर्षों के लोकसभा और विधानसभा चुनावों की परिपाटी को देखा जाये तो हर बार विश्लेषक यही आकलन लगाते हैं कि त्रिशंकु विधानसभा या लोकसभा होगी, छोटी पार्टियों का बोलबाला होगा आदि आदि पर हर बार परिणाम यही आता है कि जनता किसी न किसी दल को स्पष्ट बहुमत देती है। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण हैं और इससे पूर्व 2009 में लोकसभा चुनावों में कांग्रेसको मिली अप्रत्याशित सफलता। शर्त केवल एक है कि जनता के पास एक चेहरा और एजेंडा होना चाहिये। भाजपा इन दोनों ही मोर्चों पर बुरी तरह असमंजस में घिरी दिखाई देती है और उसका कारण कहीं न कहीं संगठनों में समन्वय का अभाव और व्यक्तित्वों का टकराव है और इसका सबसे बडा कारण विचार के प्रति निष्ठा में आयी कमी है। समस्त विचार परिवार किसी एक तत्व के प्रति निष्ठावान नहीं रह गया है जिसके चलते सूक्ष्म से उठकर स्थूल पर अधिक ध्यान चला गया है।
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में विचार परिवार विचार से अधिक प्रबंधन को लेकर चिंतित दिखता है। यही कारण है कि भाजपा पर नियंत्रण स्थापित करने की ललक का आभास सामान्य जनमानस को जाने लगा है। यदि तत्व के प्रति निष्ठावान कार्यकर्ताओं की रचना जारी रहेगी तो भाजपा भी ठीक रहेगी अन्यथा शीर्ष पद पर कोई भी हो इसका अधिक लाभ नहीं होने वाला। संघ भले ही यह कहता हो कि भाजपा के आंतरिक मामलों में उसकी भूमिका नहीं है परंतु पिछले कुछ वर्षों में यह भूमिका अधिक बढी है जिसका दोहरा दुष्परिणाम हुआ है। संघ के कार्यकर्ता राजनीतिक प्रशिक्षण से नहीं आते इस कारण वे राजनीतिक रूप से उतने सफल नहीं हो पाते लेकिन अपनी सक्रियता से भाजपा को एक राजनीतिक ईकाई के रूप में क्षति पहुँचा जाते हैं।
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अफगान राजकुमारी से निकाह करेंगे ईसाई राजकुमार राहुल?
खबर है कि राहुल गाँधी अफगानिस्तान के पूर्व राजा स्वर्गीय जहीर शाह की पोती से शादी रचाने जा रहे हैं. कभी कांग्रेस के सांसद रहे एम जे अकबर के संपादन में निकलने वाले 'दि सन्डे गार्डियन' ने यह ख़बर ब्रेक की है कि राहुल गाँधी का अफगानिस्तान की राजकुमारी से प्रेम सम्बन्ध है. यों तो पहले भी उनका नाम कई विदेशी युवतियों के साथ जोड़ा जाता रहा है लेकिन रिपोर्टों के अनुसार राहुल इस अफगान युवती से शादी करने के लिए तैयार हो गए हैं. अखबार का दावा है कि राहुल गाँधी इस लड़की के साथ दिल्ली के अमन होटल में देखे गए हैं. यह वाही होटल है जहाँ वे जिम करने जाते रहे हैं.
रिपोर्टों के अनुसार राहुल से शादी के लिए राजकुमारी ने इस्लाम धर्म छोड़कर इसी धर्म ग्रहण कर लिया है. प्रेमी युगल ने सोनिया गाँधी के सरकारी आवास पर रविवार की प्रार्थना में भी भाग लिया है.
इस ख़बर ने कई ऐसे सवाल खड़े किये हैं जो राहुल की राजनीति के प्रतिकूल साबित हो सकते हैं और जिनका जवाब देना उनके लिए संभव नहीं होगा. पहला सवाल यह है कि क्या राहुल गाँधी ईसाई हैं? धर्म उनका निजी मामला है लेकिन वे स्वयं अपने को हिन्दू बताते रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनाओं के बाद उन्होंने अपनी जाति भी लोगों को बताई थी कि वे ब्राह्मण हैं. सुब्रमण्यम स्वामी पहले से यह बताते रहे हैं कि राहुल गाँधी का वास्तविक नाम राउल विन्ची है. कन्या के धर्मांतरण से तो स्वामी का यह आरोप सही साबित होता लगता है कि राहुल वास्तव में ईसाई ही हैं लेकिन राजनीतिक मजबूरियों की वजह से वे अपने को ब्राह्मण हिन्दू बताते रहे हैं. इसका मतलब यह है कि राहुल अपने बारे में लोगों को गलत सूचनाएँ देते हैं.
दूसरा सवाल यह है कि क्या गाँधी परिवार ने या फिर अकेले सोनिया ने राहुल से शादी के लिए राजकुमारी के सामने धर्मांतरण की शर्त रखी थी. और राजकुमारी ने मजबूर होकर अपने को मुसलमान से ईसाई बना लिया? यदि ऐसा है तो यह गाँधी परिवार की धर्मनिरपेक्ष छवि को धूमिल करने वाला काम है. तीसरा सवाल यह उठता है कि राहुल गाँधी बहु स्त्रीगामी हैं. ख़बर में कहा गया है कि राहुल की पहले भी कई महिला मित्र रही हैं लेकिन अबकी बार वे इस लड़की से शादी करने जा रहे हैं.
अब सच क्या है यह हो सकता है कि आनेवाले दिनों में स्वयं राहुल के मुंह से निकले लेकिन राहुल के लिए यह शादी राजनीतिक रूप से भरी पड़ेगी. क्योंकि इससे राहुल की झूठ पर टिकी राजनीति की चूलें हिल जाएँगी. काम, प्रेम और परिवार भले ही उनका निजी मामला है लेकिन ऊपर के सवाल किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए गंभीर मुश्किलों की तरह हैं, राहुल जैसे व्यक्ति के लिए तो और भी क्योंकि अपनी गणित के अनुसार वे २०१४ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. कान्ग्रेस की जो हालत है उसमें राहुल की शादी कोढ़ में खाज का काम कर सकती है और मोदी जैसे धर्म की राजनीति करने वाले नेता के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने का तर्क बन सकती है.
मोदी को आने दो
संघ को देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भाजपा को एक स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में पैरों पर खडा होने का अभ्यास करने देना चाहिये तथा स्वयं को विचार के स्तर पर मार्गदर्शक की भूमिका में अधिक रखना चाहिये। भाजपा देश की वर्तमान स्थिति को सुधार सकती है यदि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की तर्ज पर अब नरेंद्र मोदी और अरूण जेटली के मध्य शक्तियों का बँटवारा हो जाये क्योंकि यह साझेदारी अधिक लम्बी और टिकाऊ हो सकती है जो कि देश को नयी ऊर्जा भी दे सकती है।
उत्तर प्रदेश में जहाँ कि अभी कुछ दिनों पूर्व ही चुनाव हुए हैं और भारी बहुमत से एक सरकार चुनकर आयी है वह तेजी से अपनी लोकप्रियता खोती जा रही है। भारी भरकम वादों और अपेक्षाओं के बोझ तले दब रही इस सरकार ने उत्तर प्रदेश में नयी राजनीतिक सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि कुछ ही माह पूर्व जिस भाजपा को मुँह छिपाने की जगह नहीं मिल रही थी उसके बारे में उत्तर प्रदेश में लोग फिर से चर्चा करने लगे हैं। कम से कम भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच अब आगामी लोकसभा चुनावों के संदर्भ में बात होती है और फिलहाल कांग्रेस को एक चुकी हुई शक्ति मान लिया गया है। देश वर्तमान स्थिति के सन्दर्भ में मजबूत नेता और मजबूत एजेंडे की हनक के साथ जो भी राष्ट्रीय दल अपनी उपस्थिति अभी से जनता के मध्य दर्ज करा लेगा वही 2014 में बाजी मार ले जायेगा।
कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए तो यह दूर दूर तक नहीं दिखता कि वह राहुल गाँधी को आगे कर चुनाव लडने जा रही है। कांग्रेस के साथ निकटता रखने वाले मेरे कुछ मित्रों का मानना है कि कांग्रेस धीरे धीरे कुछ दिनों के लिये विपक्ष में बैठने का मन बना रही है और राहुल गाँधी को लेकर उनकी तैयारी अगले लोकसभा के लिये तो नहीं होगी। ऐसी स्थिति में दूसरी राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण भाजपा का यह दायित्व बनता है कि वह देश को बेहतर विकल्प दे। इस प्रक्रिया में जैसी सक्रियता और कुशलता उसे दिखानी चाहिये उससे वह कोसों दूर है। जिस प्रकार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर एक कदम आगे तो तीन कदम पीछे की नीति पार्टी अपना रही है वह घातक है। नरेंद्र मोदी को लेकर मूल रूप से दो प्रश्न उठते हैं कि इससे राजग एकजुट नहीं रह सकेगा और उनकी कार्यशैली को लेकर संगठन में आशंका है। ये दोनों ही प्रश्न बचकाने और प्रायोजित हैं।
राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनाये रखने के लिये संगठन को अपने अनुसार दाँव पेंच के दायरे में बनाये रखना कौन सी नयी बात है। आज जिन अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कसीदे काढे जा रहे हैं क्या उन्हें खुश रखने के लिये संगठन ने लोगों की बलि नहीं ली थी? पुरानी बात को कुरेदना उचित और प्रासंगिक भी नहीं है लेकिन कितने ही लोग अब भी अटल जी के साथ समन्वय स्थापित न कर पाने के कारण आजीवन वनवास भुगत रहे हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को आधार बनाना केवल एक बहाना है। इसी प्रकार राजग के टूटने की आशंका भी निराधार है। राजग में आज यदि जनता दल यूनाइटेड को छोड दिया जाये तो शेष सभी घटक भाजपा के स्वाभाविक और विचारधारागत मित्र हैं और हमें नहीं भूलना चाहिये कि 1996 में जब पहली बार श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे बडे दल के रूप में सरकार बनाने के लिये आमन्त्रित किया गया था तो यही स्वाभाविक मित्र साथ थे लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस के आरोपी सदस्यों के साथ ही 1998 में राजग सदस्य 300 से भी अधिक हो गये। ऐसा क्यों हुआ ?क्योंकि भाजपा की अपनी शक्ति इतनी हो गयी कि उसके बिना सरकार बन पाना असम्भव था। आज पुनः वही स्थिति सामने है कि यदि भाजपा अपने बल पर 175 से अधिक का आँकडा छू लेती है तो घटक दलों में धर्मनिरपेक्षता के अनेक ठेकेदार पंक्तिबद्ध होकर समर्थनपत्र लेकर खडे नजर आयेंगे।
आज राजग के बिखराव की बात करके नरेंद्र मोदी का मार्ग अवरुद्ध करने का घटनाक्रम राजग सरकार के उन दिनों को याद दिलाता है कि जब श्री जार्ज फर्नांडीस को आगे कर तत्कालीन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री हिंदुत्व के किसी भी मुद्दे पर आगे बढने से इंकार कर देते थे कि इससे राजग बिखर जायेगा। आज वही स्थिति फिर से सामने है जब कुछ लोग अपनी निजी मह्त्वाकाँक्षा के चलते राजग के बिखराव की दूर की कौडी चल रहे हैं।
आज देश की जो स्थिति है उसने सर्वत्र निराशा का वातावरण खडा कर दिया है। आर्थिक स्थिति से लेकर विदेश नीति और विश्व में भारत की स्थिति पर बुरा असर पड रहा है। वर्तमान वैश्विक स्थिति को देखते हुए सदियों के बाद भारत के पास अपनी सभ्यतागत भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्राप्त हुआ है और यदि इस अवसर को हमने हाथ से जाने दिया तो पिछली अनेक पीढियों का बलिदान औत त्याग व्यर्थ हो जायेगा। यह बात कम से कम उन लोगों को तो समझनी ही चाहिये जिन्होंने भारतमाता को वैभवशाली बनाने के स्वप्न को लेकर ही अपनी अनेक पीढियाँ व्यतीत की हैं।
यदि चुनावी ग़णित के हिसाब से भी देखें तो नरेंद्र मोदी को आगे करने से भाजपा को कोई क्षति नहीं होने वाली है। पिछले कुछ वर्षों के लोकसभा और विधानसभा चुनावों की परिपाटी को देखा जाये तो हर बार विश्लेषक यही आकलन लगाते हैं कि त्रिशंकु विधानसभा या लोकसभा होगी, छोटी पार्टियों का बोलबाला होगा आदि आदि पर हर बार परिणाम यही आता है कि जनता किसी न किसी दल को स्पष्ट बहुमत देती है। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण हैं और इससे पूर्व 2009 में लोकसभा चुनावों में कांग्रेसको मिली अप्रत्याशित सफलता। शर्त केवल एक है कि जनता के पास एक चेहरा और एजेंडा होना चाहिये। भाजपा इन दोनों ही मोर्चों पर बुरी तरह असमंजस में घिरी दिखाई देती है और उसका कारण कहीं न कहीं संगठनों में समन्वय का अभाव और व्यक्तित्वों का टकराव है और इसका सबसे बडा कारण विचार के प्रति निष्ठा में आयी कमी है। समस्त विचार परिवार किसी एक तत्व के प्रति निष्ठावान नहीं रह गया है जिसके चलते सूक्ष्म से उठकर स्थूल पर अधिक ध्यान चला गया है।
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में विचार परिवार विचार से अधिक प्रबंधन को लेकर चिंतित दिखता है। यही कारण है कि भाजपा पर नियंत्रण स्थापित करने की ललक का आभास सामान्य जनमानस को जाने लगा है। यदि तत्व के प्रति निष्ठावान कार्यकर्ताओं की रचना जारी रहेगी तो भाजपा भी ठीक रहेगी अन्यथा शीर्ष पद पर कोई भी हो इसका अधिक लाभ नहीं होने वाला। संघ भले ही यह कहता हो कि भाजपा के आंतरिक मामलों में उसकी भूमिका नहीं है परंतु पिछले कुछ वर्षों में यह भूमिका अधिक बढी है जिसका दोहरा दुष्परिणाम हुआ है। संघ के कार्यकर्ता राजनीतिक प्रशिक्षण से नहीं आते इस कारण वे राजनीतिक रूप से उतने सफल नहीं हो पाते लेकिन अपनी सक्रियता से भाजपा को एक राजनीतिक ईकाई के रूप में क्षति पहुँचा जाते हैं।
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