दिल्ली पर सीएम अरविंद केजरीवाल की पकड़ मजबूत होने के बाद अब रस्साकशी अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर चल रही है. आम आदमी पार्टी सरकार ने कहा है कि वह अफसरों का ट्रांसफर करेगी. इसे लेकर एक आदेश भी पारित किया गया था लेकिन सर्विसेज डिपार्टमेंट ने इसे मानने से इनकार कर दिया. मीडिया रिपोर्ट में दावा है कि दिल्ली सर्विसेज डिपार्टमेंट को सीएम ने अफसरों के ट्रांसफर का आदेश जारी किया था, लेकिन मुख्य सचिव ने फाइल लौटा दी है. सर्विसेज डिपार्टमेंट का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में अगस्त 2016 में जारी उस नोटिफिकेशन को निरस्त नहीं किया गया है जिसमें ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार एलजी या मुख्य सचिव के पास है.
आदेश आने के कुछ घंटों बाद ही हुई थी कैबिनेट बैठक
जून 4 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के चंद घंटों के भीतर ही मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कैबिनेट बैठक बुलाई थी. इसमें उन्होंने दिल्ली सरकार के सभी विभागों को शीर्ष अदालत का आदेश मानने का निर्देश दिया था. साथ ही दिल्ली में घर-घर राशन पहुंचाने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी. इसी दौरान उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में पुलिस, जमीन और कानून व्यवस्था को छोड़ बाकी शासन तंत्र चुनी हुई सरकार के अधीन होने की बात कही है. इससे सर्विसेज विभाग वापस सरकार के पास आ गया है.
डिप्टी सीएम बोले-सर्विसेज विभाग मेरे अधीन
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक डिप्टी सीएम ने कहा था कि दिल्ली सरकार ने छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग की पूरी व्यवस्था बदल दी है. इसके बाद यह आदेश सर्विसेस विभाग को जारी कर दिया गया. उन्होंने कहा कि सर्विसेज विभाग मेरे पास है. इसलिए अब आईएएस और दानिक्स समेत तमाम अधिकारियों की ट्रांसफर या पोस्टिंग के लिए मुख्यमंत्री से अनुमति लेनी होगी.
इस फैसले की बहुत सारी व्याख्याएं सुनी होंगी. हर कोई इस फैसले का आंकलन अपने हिसाब से कर रहा है. कोई इसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जीत बता रहा है, तो कोई इसे उनके लिए झटका बता रहा है. लेकिन असल में आज के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा, ये कोई नहीं बता रहा. ये एक उलझा हुआ विषय है, और हम इस विषय को सरल भाषा में आपको समझाएंगे.
पिछले साढ़े तीन साल से अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ये दुहाई देती रही कि उन्हें दिल्ली में काम नहीं करने दिया गया. लेकिन आज हम आपको ये बताएंगे कि जो सीमित अधिकार अरविंद केजरीवाल के पास हैं, उनका सद-उपयोग करके वो क्या-क्या कर सकते थे?
दिल्ली में अधिकारों की लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्थिति साफ कर दी है, ऐसे में बचे हुए डेढ़ साल के कार्यकाल में अरविंद केजरीवाल चाहें, तो दिल्ली का कायाकल्प कर सकते हैं. हम इस पर भी बात करेंगे लेकिन सबसे पहले आपको सुप्रीम कोर्ट का आज फैसला बता देते हैं. और इस फैसले को समझने के लिए आपको इस पूरे मामले का बैकग्राउंड पता होना चाहिए.
केंद्र सरकार ने मई 2015 में एक नोटिफिकेशन जारी किया था जिसके मुताबिक अधिकारियों की नियुक्ति, ट्रांसफर, ज़मीन, कानून व्यवस्था और पुलिस से जुड़े मामलों को लेकर दिल्ली के उपराज्यपाल को अंतिम फैसला लेने का पूर्ण अधिकार होगा. अरविंद केजरीवाल की सरकार इस नोटिफिकेशन के खिलाफ हाईकोर्ट चली गई थी.
इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने अगस्त 2016 में दिल्ली सरकार की याचिका पर फैसला दिया था. और उस फैसले के मुताबिक दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख उपराज्यपाल को माना गया था.
इस फैसले के बाद दिल्ली सरकार के बहुत से अधिकारों में कटौती हो गई थी. और उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच का विवाद और ज़्यादा बढ़ गया था.
इस फैसले के खिलाफ दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और आज सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.
सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले के मुताबिक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है. दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश है. और यहां ज़मीन, पुलिस और Public Order से जुड़े अधिकार उप राज्यपाल के पास ही रहेंगे.
ये भी कहा गया है कि मंत्री परिषद के किसी फैसले को उपराज्यपाल की तरफ से अटकाया जाता है, तो ये सरकार की सामूहिक ज़िम्मेदारी को नकारना होगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि सभी मामलों में लेफ्टिनेंट गवर्नर यानी LG की मंज़ूरी लेना ज़रूरी नहीं होगा. उनकी भूमिका अड़ंगा लगाने की नहीं है, बल्कि उन्हें मंत्रिपरिषद के साथ मिलकर काम करना चाहिए और उसके फैसलों का सम्मान करना चाहिए.
उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हुए हैं. वो किसी Mechanical तरीके से ऐसे कार्य नहीं कर सकते कि वो बिना अपना दिमाग लगाए, मंत्री परिषद के हर निर्णय को राष्ट्रपति के पास भेज दें.
इस फैसले को बहुत से लोग दिल्ली सरकार की जीत बता रहे हैं. लेकिन ये बात आंशिक रूप से सही है, पूर्ण रूप से नहीं.
अब भी दिल्ली के संदर्भ में कोई भी फैसला लेने का अंतिम अधिकार लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास हैं. दिल्ली सरकार को हर फैसले की सूचना उप राज्यपाल को देनी होगी.
अगर उप राज्यपाल को सरकार की बनाई किसी नीति या किसी बड़े फैसले में कोई ख़ामी नज़र आती है, तो वो उस फैसले पर आपत्ति दर्ज करके उसे अंतिम फैसले के लिए राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं.
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था में दिल्ली को किसी भी तरह से पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता. दिल्ली के उपराज्यपाल दूसरे राज्यों के राज्यपाल की तरह नहीं हैं, बल्कि वो एक प्रशासक हैं.
पिछले कुछ वर्षों से अधिकारों की लड़ाई को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच टकराव की चिंगारियां निकल रही हैं. इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट भी फैसला सुना चुका है. लेकिन कुछ बनियादी बातें ऐसी हैं, जो कुछ लोगों को समझ में आ जातीं तो शायद दिल्ली में इस टकराव की नौबत ही नहीं आती.
दिल्ली एक आंशिक राज्य है, पूर्ण राज्य नहीं है. 1991 में संविधान में संशोधन के ज़रिए दिल्ली को विशिष्ट संवैधानिक दर्जा और अपनी विधानसभा मिली थी.
संविधान के हिसाब से दिल्ली के प्रमुख...उपराज्यपाल हैं.. 1993 से दिल्ली में जो भी सरकार बनी, उनमें से किसी ने भी उपराज्यपाल की शक्तियों को चुनौती नहीं दी.
जब आम आदमी पार्टी को दिल्ली में ज़बरदस्त बहुमत मिला, तो उसे लगा कि उसके पास दिल्ली में मनचाहे तरीके से काम करने की पूरी शक्ति है.
लेकिन ऐसा करना संविधान में दिल्ली के लिए बने नियमों के अनुरूप नहीं है, क्योंकि दिल्ली की चुनी हुई सरकार को उपराज्यपाल के साथ अपनी शक्तियों को शेयर करना ही पड़ता है.
दिल्ली जैसे आंशिक राज्य के मुकाबले दूसरे पूर्ण राज्यों में राज्यपाल होते हैं...जो राज्य की मंत्रिपरिषद और मुख्यमंत्री की सलाह पर काम करते हैं...लेकिन दिल्ली की स्थिति अलग है.
संविधान के अनुच्छेद 239 AA और AB में दिल्ली के उपराज्यपाल को दूसरे राज्यों के राज्यपालों से ज़्यादा संवैधानिक शक्तियां दी गई हैं.
इस अनुच्छेद का Clause 4 कहता है कि दिल्ली की मंत्रिपरिषद उपराज्यपाल को Aid and Advise यानी मदद और सलाह देगी...बशर्ते ऐसा कोई मामला सामने आए...नहीं तो उपराज्यपाल ख़ुद फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं.
नियम कहते हैं कि अगर उपराज्यपाल और मंत्रिपरिषद में मतभेद हों, तो मामला राष्ट्रपति के पास भेजना चाहिए.
और जब तक ये मामला राष्ट्रपति के पास लंबित पड़ा है, तब तक उपराज्यपाल के पास अधिकार होता है कि वो अपने विवेक से किसी भी तात्कालिक मामले में तुरंत कार्रवाई कर सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी फैसले लेने का अंतिम अधिकार, दिल्ली के उपराज्यपाल के पास सुरक्षित है।
आदेश आने के कुछ घंटों बाद ही हुई थी कैबिनेट बैठक
जून 4 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के चंद घंटों के भीतर ही मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कैबिनेट बैठक बुलाई थी. इसमें उन्होंने दिल्ली सरकार के सभी विभागों को शीर्ष अदालत का आदेश मानने का निर्देश दिया था. साथ ही दिल्ली में घर-घर राशन पहुंचाने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी. इसी दौरान उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में पुलिस, जमीन और कानून व्यवस्था को छोड़ बाकी शासन तंत्र चुनी हुई सरकार के अधीन होने की बात कही है. इससे सर्विसेज विभाग वापस सरकार के पास आ गया है.
Important announcements in a Presser by Delhi Dy CM @msisodia today after Cabinet Meeting regarding change in Transfer Policy of Delhi Govt & other issues.
Watch full PC here youtu.be/YupEmnWm2y8
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक डिप्टी सीएम ने कहा था कि दिल्ली सरकार ने छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग की पूरी व्यवस्था बदल दी है. इसके बाद यह आदेश सर्विसेस विभाग को जारी कर दिया गया. उन्होंने कहा कि सर्विसेज विभाग मेरे पास है. इसलिए अब आईएएस और दानिक्स समेत तमाम अधिकारियों की ट्रांसफर या पोस्टिंग के लिए मुख्यमंत्री से अनुमति लेनी होगी.
LG और दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला
जब दो छोटे बच्चों में लड़ाई हो जाती है, तो अकसर घर के बड़े उनकी लड़ाई सुलझाने के लिए ये कहते हैं - एक दूसरे को सॉरी बोलो. हाथ मिलाओ और अब आगे से तुम दोनों मिल जुलकर कर रहना. आज दिल्ली सरकार और LG के अधिकारों की लड़ाई पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का एक लाइन में यही सार है.इस फैसले की बहुत सारी व्याख्याएं सुनी होंगी. हर कोई इस फैसले का आंकलन अपने हिसाब से कर रहा है. कोई इसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जीत बता रहा है, तो कोई इसे उनके लिए झटका बता रहा है. लेकिन असल में आज के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा, ये कोई नहीं बता रहा. ये एक उलझा हुआ विषय है, और हम इस विषय को सरल भाषा में आपको समझाएंगे.
पिछले साढ़े तीन साल से अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ये दुहाई देती रही कि उन्हें दिल्ली में काम नहीं करने दिया गया. लेकिन आज हम आपको ये बताएंगे कि जो सीमित अधिकार अरविंद केजरीवाल के पास हैं, उनका सद-उपयोग करके वो क्या-क्या कर सकते थे?
दिल्ली में अधिकारों की लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्थिति साफ कर दी है, ऐसे में बचे हुए डेढ़ साल के कार्यकाल में अरविंद केजरीवाल चाहें, तो दिल्ली का कायाकल्प कर सकते हैं. हम इस पर भी बात करेंगे लेकिन सबसे पहले आपको सुप्रीम कोर्ट का आज फैसला बता देते हैं. और इस फैसले को समझने के लिए आपको इस पूरे मामले का बैकग्राउंड पता होना चाहिए.
केंद्र सरकार ने मई 2015 में एक नोटिफिकेशन जारी किया था जिसके मुताबिक अधिकारियों की नियुक्ति, ट्रांसफर, ज़मीन, कानून व्यवस्था और पुलिस से जुड़े मामलों को लेकर दिल्ली के उपराज्यपाल को अंतिम फैसला लेने का पूर्ण अधिकार होगा. अरविंद केजरीवाल की सरकार इस नोटिफिकेशन के खिलाफ हाईकोर्ट चली गई थी.
इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने अगस्त 2016 में दिल्ली सरकार की याचिका पर फैसला दिया था. और उस फैसले के मुताबिक दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख उपराज्यपाल को माना गया था.
इस फैसले के बाद दिल्ली सरकार के बहुत से अधिकारों में कटौती हो गई थी. और उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच का विवाद और ज़्यादा बढ़ गया था.
इस फैसले के खिलाफ दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और आज सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.
सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले के मुताबिक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है. दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश है. और यहां ज़मीन, पुलिस और Public Order से जुड़े अधिकार उप राज्यपाल के पास ही रहेंगे.
ये भी कहा गया है कि मंत्री परिषद के किसी फैसले को उपराज्यपाल की तरफ से अटकाया जाता है, तो ये सरकार की सामूहिक ज़िम्मेदारी को नकारना होगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि सभी मामलों में लेफ्टिनेंट गवर्नर यानी LG की मंज़ूरी लेना ज़रूरी नहीं होगा. उनकी भूमिका अड़ंगा लगाने की नहीं है, बल्कि उन्हें मंत्रिपरिषद के साथ मिलकर काम करना चाहिए और उसके फैसलों का सम्मान करना चाहिए.
उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हुए हैं. वो किसी Mechanical तरीके से ऐसे कार्य नहीं कर सकते कि वो बिना अपना दिमाग लगाए, मंत्री परिषद के हर निर्णय को राष्ट्रपति के पास भेज दें.
इस फैसले को बहुत से लोग दिल्ली सरकार की जीत बता रहे हैं. लेकिन ये बात आंशिक रूप से सही है, पूर्ण रूप से नहीं.
अब भी दिल्ली के संदर्भ में कोई भी फैसला लेने का अंतिम अधिकार लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास हैं. दिल्ली सरकार को हर फैसले की सूचना उप राज्यपाल को देनी होगी.
अगर उप राज्यपाल को सरकार की बनाई किसी नीति या किसी बड़े फैसले में कोई ख़ामी नज़र आती है, तो वो उस फैसले पर आपत्ति दर्ज करके उसे अंतिम फैसले के लिए राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं.
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था में दिल्ली को किसी भी तरह से पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता. दिल्ली के उपराज्यपाल दूसरे राज्यों के राज्यपाल की तरह नहीं हैं, बल्कि वो एक प्रशासक हैं.
पिछले कुछ वर्षों से अधिकारों की लड़ाई को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच टकराव की चिंगारियां निकल रही हैं. इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट भी फैसला सुना चुका है. लेकिन कुछ बनियादी बातें ऐसी हैं, जो कुछ लोगों को समझ में आ जातीं तो शायद दिल्ली में इस टकराव की नौबत ही नहीं आती.
दिल्ली एक आंशिक राज्य है, पूर्ण राज्य नहीं है. 1991 में संविधान में संशोधन के ज़रिए दिल्ली को विशिष्ट संवैधानिक दर्जा और अपनी विधानसभा मिली थी.
संविधान के हिसाब से दिल्ली के प्रमुख...उपराज्यपाल हैं.. 1993 से दिल्ली में जो भी सरकार बनी, उनमें से किसी ने भी उपराज्यपाल की शक्तियों को चुनौती नहीं दी.
जब आम आदमी पार्टी को दिल्ली में ज़बरदस्त बहुमत मिला, तो उसे लगा कि उसके पास दिल्ली में मनचाहे तरीके से काम करने की पूरी शक्ति है.
लेकिन ऐसा करना संविधान में दिल्ली के लिए बने नियमों के अनुरूप नहीं है, क्योंकि दिल्ली की चुनी हुई सरकार को उपराज्यपाल के साथ अपनी शक्तियों को शेयर करना ही पड़ता है.
दिल्ली जैसे आंशिक राज्य के मुकाबले दूसरे पूर्ण राज्यों में राज्यपाल होते हैं...जो राज्य की मंत्रिपरिषद और मुख्यमंत्री की सलाह पर काम करते हैं...लेकिन दिल्ली की स्थिति अलग है.
संविधान के अनुच्छेद 239 AA और AB में दिल्ली के उपराज्यपाल को दूसरे राज्यों के राज्यपालों से ज़्यादा संवैधानिक शक्तियां दी गई हैं.
इस अनुच्छेद का Clause 4 कहता है कि दिल्ली की मंत्रिपरिषद उपराज्यपाल को Aid and Advise यानी मदद और सलाह देगी...बशर्ते ऐसा कोई मामला सामने आए...नहीं तो उपराज्यपाल ख़ुद फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं.
नियम कहते हैं कि अगर उपराज्यपाल और मंत्रिपरिषद में मतभेद हों, तो मामला राष्ट्रपति के पास भेजना चाहिए.
और जब तक ये मामला राष्ट्रपति के पास लंबित पड़ा है, तब तक उपराज्यपाल के पास अधिकार होता है कि वो अपने विवेक से किसी भी तात्कालिक मामले में तुरंत कार्रवाई कर सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी फैसले लेने का अंतिम अधिकार, दिल्ली के उपराज्यपाल के पास सुरक्षित है।
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