बायीं तस्वीर 1950 से पहले की भारतीय फुटबॉल टीम की है, जो नंगे पांव मैदान में उतरा करती थी। |
पैसे की कमी से टीम नहीं भेजी!
वर्ल्ड कप में टीम न भेजने का अचानक हुआ ये फैसला बेहद रहस्यमय था। तब ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (AIFF) एक सरकारी संस्था हुआ करती थी। उसने इस फैसले पर कई अलग-अलग तरह की सफाइयां दीं। ब्राजील में आयोजकों को औपचारिक तौर पर बताया गया कि भारतीय टीम नाम वापस ले रही है क्योंकि हमारे पास यात्रा का खर्च उठाने लायक पैसे नहीं हैं। इस पर आयोजकों ने जवाब दिया कि वो पूरी भारतीय टीम का यात्रा और ठहरने का खर्च उठाने को तैयार हैं। लेकिन भारतीय फेडरेशन ने इस ऑफर को ठुकरा दिया। टीम भेजने का पैसा न होने की बात भारतीय मीडिया और जनता को नहीं बताई गई। क्योंकि इससे लोगों में गुस्सा भड़क जाता। लिहाजा यहां पर बताया गया कि फीफा ने खिलाड़ियों के नंगे पांव फुटबॉल खेलने पर पाबंदी लगा दी है। भारतीय टीम की प्रैक्टिस नंगे पांव खेलने की है, लिहाजा इसके विरोध में टीम नहीं भेजने का फैसला लिया गया है। तब के भारतीय फुटबॉल कैप्टन शैलेंद्र नाथ मन्ना ने इसे सरासर झूठ बताया था। दरअसल यह वो समय था जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनका परिवार शाही सुख-सुविधाओं से भरी जिंदगी जीया करता था। वो जब चाहते सरकारी खर्चे पर विदेश जाते। यहां तक कि उनके कपड़े भी धुलने के लिए स्पेशल प्लेन से विदेश भेजे जाते थे। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू अपनी गर्लफ्रेंड एडविना माउंटबेटन को लव लेटर भी एयर इंडिया के स्पेशल प्लेन से भेजा करते थे। माना जाता है कि वर्ल्ड कप में टीम न भेजने का फैसला भी नेहरू का ही था। वर्ल्ड कप को लेकर हुई फजीहत के बावजूद नेहरू ने कभी फुटबॉल को बढ़ावा देने की जरूरत नहीं समझी।
देश की आंखों में धूल झोंका गया
1948 के लंदन ओलिंपिक की ये तस्वीर भारतीय फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों की है, जिनके पैरों में जूते तक नहीं थे। लेकिन उनके खेल को देखकर दुनिया हैरान रह गई थी। |
टीम के कप्तान शैलेंद्र नाथ मन्ना को लोग शेलेन मन्ना के नाम से जानते थे। वो उस समय दुनिया के कुछ सबसे बेहतरीन प्लेयर्स में से एक माने जाते थे। 1953 में इंग्लैंड फुटबॉल एसोसिएशन ने मन्ना को दुनिया के टॉप-10 कप्तानों में जगह दी थी। कुछ साल बाद उन्होंने इस सार्वजनिक तौर पर लोगों को बता दिया था कि 1950 फीफा वर्ल्ड कप में भारतीय टीम नंगे पांव खेलने पर पाबंदी के कारण नहीं, बल्कि पैसे बचाने के लिए नहीं भेजी गई थी। यह स्थिति तब थी जब 1948 के ओलिंपिक में इसी टीम ने फर्स्ट राउंड के अपने मैच में फ्रांस की टीम के पसीने छुड़ा दिए थे। उस मैच में भारत के ज्यादातर खिलाड़ी नंगे पांव खेल रहे थे, जबकि कुछ ने मोजे पहने हुए थे। पूरी दुनिया ये देखकर हैरान रह गई नंगे पांव खेलने वाली उस टीम ने फ्रांस जैसी मजबूत टीम को रोमांचक मैच में 1-1 से बराबरी पर रोके रखा था। लेकिन आखिरी मिनटों में गोल से टीम हार गई थी। एक आजाद देश के तौर पर भारतीय टीम का वो पहला अंतरराष्ट्रीय मैच था। उस मैच में भारतीय टीम के खेल को देखकर हर कोई यही कह रहा था कि आगे चलकर यह टीम दुनिया की नंबर वन बनने की क्षमता रखती है। इसके बाद 1951 के एशियन गेम्स में भारतीय टीम ने गोल्ड मेडल जीतकर पूरी दुनिया को चौंका दिया।
नेहरू जीत गए, फुटबॉल हार गया
फुटबॉल टीम का वर्ल्ड कप में न जाना एक सरकार के तौर पर नेहरू की बड़ी विफलताओं में से एक माना जाता है। उन्होंने टीम का हौसला बढ़ाने को कम जरूरी माना और अपनी निजी सुख-सुविधाओं को ज्यादा अहमियत दी। नेहरू की इन करतूतों को उनकी पार्टी शायद आने वाली पीढ़ियों से छिपाना चाहती थी, इसी मकसद से देश में बाद के दौर में बने तमाम फुटबॉल स्टेडियमों के नाम नेहरू के नाम पर रख दिए गए। यहां तक कि 1982 में नेहरू कप फुटबॉल टूर्नामेंट शुरू किया गया। मानो जवाहरलाल नेहरू देश के कोई महान फुटबॉल प्लेयर रहे हों। आज शैलेंद्र नाथ मन्ना को कोई नहीं जानता, जो शायद किसी दूसरे देश में पैदा हुए होते तो उनकी गिनती दुनिया के महानतम फुटबॉलरों में होती।
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